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तो विशेष रूप से संसार से निर्वेद हो गया। जैसे ही बहन आई कि तुरंत अपने पुत्र को राज्य देकर चित्रगति के समक्ष उसने सुयश मुनि के पास जाकर दीक्षा अंगीकार कर ली। चित्र स्वस्थान लौट आया।
___ (गा. 213 से 215) प्राज्ञ सुमित्र राजर्षि ने गुरु के पास कुछ न्यून नव पूर्व का अध्ययन किया। पश्चात् गुरु की आज्ञा लेकर एकाकी विचरण करते हुए मगध देश में आयावहाँ किसी गांव के बाहर कायोत्सर्ग में रहे। इतने में उसका अपरमाता पुत्र सपत्नी बंधु पद्म वहाँ आ पहुँचा। उसने सर्व जीव के हितकारी सुमित्र मुनि को गिरी में सदृश स्थिर रहकर ध्यान में स्थित देखा। उस वक्त मानो अपनी माता भद्रा को मिलने जाना चाहता हो वैसे नरकाभिमुख हुए पद्म को कान तक खींच कर सुमित्र के हृदय में एक बाण मारा। परन्तु इस भाई ने बाण मारकर मेरा कुछ धर्मभ्रष्ट किया नहीं, बल्कि धर्म का छेद करने में सहायक रूप मित्र होने से उलटा वह तो मेरा हितकारी हुआ है। मैंने पूर्व में इस भद्र को राज्य नहीं दिया, इसलिए मैंने उसका अपकार किया है, अतः वह मुझे क्षमा करे एवं सभी प्राणी भी मुझे क्षमा करें। इस प्रकार शुभ ध्यान ध्याते हुए, सर्व प्रकार के प्रत्याख्यान करके, नमस्कार मंत्र का स्मरण करते हुए मृत्यु के पश्चात् सुमित्र मुनि ब्रह्मदेवलोक में इंद्र के समानिक देव हुए। इधर पद्म वहाँ से भाग रहा था, इतने में रात्रि में उसे काले सर्प ने डंस लिया। जिससे मर कर वह सातवें नरक में गया।
__(गा. 216 से 223) सुमित्र की मृत्यु के समाचार सुनकर महामति चित्रगति चिरकाल तक शोक करके यात्रा करने के लिए सिद्धायतन में गये। उस समय वहाँ यात्रा में अनेक खेचरेश्वर एकत्रित हुए थे। उसमें अनंगसिंह राजा भी अपनी पुत्री रत्नवती को लेकर आया था। चित्रगति ने वहाँ शाश्वत प्रभु की विचित्र प्रकार से पूजा की। बाद में अंग में रोमांचपूर्वक विचित्र वाणी से उसने प्रभु की स्तुति की। उस समय देवता बना सुमित्र अवधिज्ञान से जागकर वहाँ आया उसने अन्य देवताओं के साथ चित्रगति के ऊपर पुष्पवृष्टि की। खेचर हर्षित होकर चित्रगति की प्रशंसा करने लगे। तब अनंगसिंह राजा ने भी पुत्री के वर रूप से उसे पहचान लिया।
(गा. 224 से 228)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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