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महोपाध्याय समयसुन्दर
वध किया करता था, वहां ही जेसलमेर के अधिपति रावल भीमजी को बोध देकर इस हिंसा-कृत्य को बन्द करवाया था
और मंडोवर२ (मंडोर, जोधपुर स्टेट ) तथा मेड़ता के अधिपतियों को ज्ञान-शिक्षा देकर शासन-सेवी बनाया था।
औदार्य और गुणग्राहकता कवि सचमुच में ही भावुकता और औदार्य के कारण कवि ही था । वैसे तो कवि खरतरगच्छ का अनुयायी और महास्तंभ गीतार्थ था; किन्तु अनुयायी होने पर भी उसके हृदय में श्रुतदेवी का विलास होने कारण किंचित भी हठाग्रह या संकीर्णता नहीं थी; थी तो केवल उदारता ही। उदाहरण स्वरूप देखिये:
तपागच्छ के धर्मसागरजी जहां प्रलापी की तरह खरतरगच्छ को और उसके कर्णधार महाप्रभावी प्राचार्यों को खर-तर, निह्नव, उत्सूत्रभाषी, मिथ्याप्रलापी और जार-पुत्र आदि अशिष्ट विशेषण दे रहा था वहां कवि अपने गच्छ और आचार्यों की मर्यादा तथा अपनी वैधानिक परम्पराओं को सुरक्षित रख रहा था। 'समाचारी .शतक' में कवि अभयदेवसूरि की खरतरगच्छीयता, षट्कल्याणक निर्णय, अधिकमास निर्णय, उपवास सह पौषध और खरतरगच्छ की परिभाषा एवं ऐतिहासिकता सिद्ध करता हुआ शास्त्रीयता का प्रतिपादन कर रहा है। किन्तु क्या मजाल की कहीं भी धर्मसागर का नामोल्लेख भी किया हो अथवा कहीं भी, किसी के लिये भी अशिष्ट विशेषणों का या शब्दों को प्रयोग किया हो! अपितु देखा ऐसा जाता है कि कवि, धर्मसागर जी के ही सहपाठी, गुरुभ्राता और तपागच्छनायक हीरविजयसूरि १-२-३ देखें, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि पृ० १६७।
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