Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धपाय ]
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जिस प्रकार फल, पत्ते, शाखा, स्कंध, गुच्छा, टहनी आदिका समूह ही वृक्ष है - इनको छोड़कर वृक्ष कोई वस्तु नहीं है; उसीप्रकार ज्ञान, दर्शन सुख, वीर्य, चारित्र, सम्यक्त्व आदि विशेष गुण और अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, अगुरुलघुत्व आदि सामान्य गुण - इनका समूह ही जीव द्रव्य है । इन गुणों को छोड़कर जीव और कोई पदार्थ नहीं है । इन गुणों में प्रतिक्षण अनेक पर्यायें होती रहती हैं. इसलिए पर्यायोंका पिंड भी जीव है। पर्यायोंके अनेक भेद होते हैं, इस बातका निरूपण पहिले किया जा चुका है
बिना अस्तित्व गुणके, अर्थात् बिना सत्ताके कोई पदार्थ नहीं कहा जा सकता । पदार्थ वही हो सकता है, जो सत्स्वरूप है, भाव रूप है । भाव सदा एक रूपमें कभी नहीं रहता, वह सदा परिणमन करता रहता है । कभी किसी रूप में आता है और कभी किसी रूपमें। जीवभी एक भावात्मक पदार्थ है । वह भी सदा परिणमन करता रहता है । कभी मनुष्य पर्यायसे देव- पर्याय में चला जाता है और कभी देव पर्यायसे मनुष्य अथवा तिर्यञ्च हो जाता है, कभी मनुष्य अथवा तिर्यंचसे नारकी बन जाता है और कभी नारकी से मनुष्य अथवा तियंचपर्यायमें आ जाता है । कभी मनुष्यसे तियंच अथवा तिर्यंच मनुष्य अथवा देव हो जाता है । इस प्रकार जीवकी एक पर्यायका नाश और एकका उत्पाद होता रहता है । धौग्य उसका सदात्मक अवस्थारूप बना रहता है । यह 'उत्पाद - व्यय- ध्रौव्य' जीवका वैभाविक अवस्थाका है परंतु यह त्रितयात्मक पर्याय एक अस्तित्वगुणकी है, इसलिये शुद्ध जीवमें भी सदा उत्पाद - व्यय - धौव्य हुआ करता है । सिद्धोंमें भी एक पर्यायका नाश, एक का उत्पाद और सदवस्थारूप परिणामका धौव्य सदा होता रहता है । दृष्टांतके लिए सिद्धोंके ज्ञानगुणको ले लीजिए, सिद्धों के ज्ञानमें घट रूप वर्तमान- पर्याय विषय पड़ती है तो साथ ही घटकी पूर्व मृत्तिकारूप पर्याय - भूतपर्याय और घटकी उत्तर- पर्याय कपाल या ठीकरे
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