Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धय पाय
और भी
प्रागेव फलति हिंसा क्रियमाणा फलति फलति च कृतापि । आरभ्य कर्तुमकृतापि फलति हिसानुभावेन ॥ ५४ ॥
अन्ययार्थ – [ प्राक् एवं हिंसा फलति ] कोई हिंसा पहले ही फल देती है [ क्रियमाणा फलति ] कोई हिंसा करते करते फल देती हैं [ कृता अपि फलति ] कोई हिंसा कर चुकनेपर फल देती है [ च ] और [ कतु आरभ्य ] कोई हिंसा आरंभ करके [ अकृता अपि ] विना किये भी [ फलति ] फल देती है । [ इति ] इस प्रकार [ अनुभावेन ] भावोंके अनुसार [हिंसा फलति ] हिंसा फल देती है ।
विशेषार्थ — जैनसिद्धांत के मंतव्यानुसार जिस समय जैसे जीवके भाव हो जाते हैं उस समय उसीप्रकार शुभ अथवा अशुभ कर्म बंध जाते हैं । कोई जीव किसी जीवको मारनेका विचार कर चुका हो तो विचार करते समय जो उसके जीवधातक हिंसारूप भाव हुए हैं उसी समय उसके दुःख देनेवाले बुरे कर्मो का बंध हो चुका है । विचार करने के पीछे जबतक वह दूसरे प्राणीको मार भी नहीं पाया उसके पहले ही वे विचारसमय के बंधे हुए कर्म उदयमें आगये इसलिये जीवकी हिंसा भी नहीं कर पाया, उसके पहले ही उसे हिंसाका फल मिल जाता है । कोई जीव किसीको मारना चाहता है और वैसे हिंसारूप विचारोंमें उसने कर्मका बंध कर लिया पीछे जब दूसरे जीवको मारने लगा उसीसमय उसे उन कर्मों का फल भी मिलने लगा जोकि उसने विचार करते समय बांधे थे इसलिये यहांपर हिंसा करते करते ही हिंसाका फल मिल गया। कोई जीव किसी जीवकी हिंसा कर चुका, हिंसा करते समय जो कर्म ( पाप ) उसके बंधे थे उनका पीछे उदय आया इसलिये यहां पर हिंसा करने के पीछे हिंसाका फल मिला । कोई जीव हिंसा करने के लिये मनमें विचार कर चुका उसी विचारोंसे उसने बुरे कर्म बांध लिये पीछे हिंसा करने के लिये उद्यत हुआ परन्तु हिंसा कर नहीं पाया इसी बीच में उसके हिंसारूप भावों से बंधे हुए कर्म उदयमें आ गये
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