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[ पुरुषार्थसिद्धघु पाय
देश चारित्रका घात करने वाले कषाय प्रविहाय च द्वितीयान् देशचारित्रस्य सम्मुखायाताः । नियतं ते हि कषायाः देशचरित्र निरुद्ध्यंति ॥१२५॥
अन्वयार्थ-[ द्वितीयान् च ] द्वितीय कषाय-अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ इन चार कपायोंको भी [ प्रविहाय ] छोड देनेसे [देशचारित्रस्य ] एकदेशचारित्रके [ सम्मुखा याताः भवति' ] सम्मुख होते हैं अर्थात् एकदेशचारित्रको धारण करते हैं | हि ] क्योंकि [ ते कषायाः ] वे चारों कषाय [ नियतं ] नियमरूपसे [ देशचरित्रं ] एकदेशपारित्रको [ निरुद्धयंति ] रोकते हैं।
विशेषार्थ-प्रत्याख्यान नाम चारित्रका है 'अ' नाम ईषतका है, आवरख नाम रोकनेका है अर्थात् जो ईषत् ( थोड़े-एकदेश ) चारित्रको रोक दे वह अप्रत्याख्यानावरण कर्म कहा जाता है । यह कर्म चारित्रमोहनीय का दूसरा भेद है, चौथे गुणस्थानतक इस कर्मका उदय रहता है । इसलिये वहांतक जीव चारित्रकेधारण करने में असमर्थ हैं। क्योंकि अप्रत्याख्यानावरणीकषाय एकदेश चारित्रका घात करनेवाला है उसकी जहांतक उदयावलिमें स्थिति रहेगी वहांतक देशचारित्र नहीं धारण किया जा सकता। इसीलिये जीव चतुर्थ गुणस्थानतक अव्रती रहते हैं, वहांतक व्रत धारण करनेकी इच्छा ही जीवोंमें नहीं उत्पन्न होती, यह कुछ कर्मकी अद्वितीय विचित्रता एवं सामर्थ्य है कि जीवोंके परिणामोंमें इसप्रकार मलिमा समा जाती है जिससे कि वृत धारण करनेकी बुद्धि जागृत ही नहीं होती और यदि सम्यग्ज्ञानियोंकी इच्छा सम्यक्त्वके प्रभावसे होती भी है तो चारित्रमोहनीय यह द्वितीय कषाय उन्हें नियमितरूपसे-प्रतिज्ञातरूपसे व्रत पालने नहीं देता, मोहितबुद्धि उन्हें विमोहित बनाकर व्रतभ्रष्ट बना देता है । इसलिये चौथे गुणस्थानतक नियमितरूपसे जीव व्रतोंके धारण करनेसे सर्वथा असमर्थ हैं । यदि यहां यह कोई शंका करे कि तब तो चतुर्थगुण. स्थानतक सभी भ्रष्टाचारी ही रहते हैं, सो ठीक नहीं है। चतुर्थ गुणस्थानमें
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