Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्ध घ पाय ]
उनके सर्वथा नित्यता अनित्यता आदि सिद्धांतोंका निर्मूल उच्छेद प्रत्यक्ष सिद्ध वस्तुव्यवस्थासे स्वयं हो जाता है जब कि वह द्रव्यपर्यायात्मक रूपमें प्रत्येक बुद्धिमानके अनुभवमें आती है इसलिये परस्पर सापेक्षता रखनेवाले नयों द्वारा वस्तुविवेचन करनेवाला तथा प्रमाणद्वारा दोनों अंशोंको विषय करनेवाला जैनसिद्धांत ही जगत्में अबाध अखंड-युक्किप्रमाणसिद्ध सदा जयशाली है इसी जैनधर्म की प्रमाणतासे वस्तु कंथचित् नित्य, कंथचित् अनित्य, कंथचित् एक, कंथचित् अनेक रूप है । उसे सर्वथा नित्य अथवा अनित्य आदि रूपमें कहना वस्तकी वस्तुताका अलाप करना है । वैसा एकांतकथन युक्किप्रमाणसे बाधित हो जाता है । इसलिये अनेकांत रूपसे वस्तुका प्रतिपादन करने वाली जैनी नीति-श्रीजिनेंद्रदेव द्वारा प्रतिपादन की गई जैनसिद्धान्तकी अनेकांत विवक्षा जगत्में सदा निर्वाध रूपसे जय शाली प्रवर्तित है।
___ ग्रन्थ समाप्त करते हुये आचार्य अपनी लघुता बतलाते हैंवर्णैः कृतानि चित्रैः पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि। वाक्यैः कृतं पवित्रंशस्त्रमिदंन पुनरस्माभिः॥२२६॥
अन्वयार्थ-[ चित्रः] अनेक प्रकारके-स्वर व्यंजन [ वर्णैः ] वर्णोसे-अक्षरोंसे [ पदानि कृतानि ] पद किये गये हैं (तु ) और ( पदैः ) पदोंसे ( वाक्यानि कृतानि ) वाक्य किये गए हैं [ वाक्पः ] वाक्यों से [ इदं पवित्रं शास्त्रं कृतं ] यह पवित्र शास्त्र किया गया है। [पुनः अम्माभिः न ] फिर हमने कुछ नहीं किया है। ___ विशेषार्थ-श्रीमान् परमपूज्य आचार्यवर्य श्रीअमृतचंद्रसूरि महाराज इस महान् ग्रंथ श्री पुरुषार्थसिद्धयुपायको समाप्त करते हुए अपनी लघुता बताते हुए कहते हैं कि इस शास्त्रके बनाने में मैंने कुछ नहीं किया है । जो कुछ इस शास्त्रमें श्लोक है वे सब मेरी निजकी कुछ संपत्ति नहीं है, श्लोकोंकी सब सामग्री जगत्में उपस्थित है । उसीका संग्रह यह श्लोकनिबद्ध शास्त्ररचना है । जगत्में स्वर अ आ इ ई आदि अनादिसिद्ध उपस्थित ही
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