________________
४३६ ]
[ पुरुषार्थसिद्धयुपाय
WWV
AN
अपने स्वरूपको कभी छोड़ नहीं सकता। इसीप्रकार सभी द्रव्योंकी व्यवस्था है। जब वस्तुकी इसप्रकार व्यवस्था है तब उसका विवेचन भी उसी रूप से किया जाता है जिस रूपसे कि वह है । द्रव्य और पर्याय दोनों एक ही वस्तुके अंश हैं । दोनों अंशस्वरूप ही वस्तु हैं परंतु दोनों अंशोंका विवेचन युगपत् नहीं किया जा सकता । एकसमयमें एकही अंशका विवेचन हो सकता है। इसलिए एकसमयमें द्रव्यदृष्टिकी मुख्यतासे विवेचन किया जाता है और एकसमयमें पर्यायदृष्टिसे अनित्यताकी मुख्यतासे विवेचन किया जाता है, परंतु इतना विशेष है कि जिससमय द्रव्यदृष्टिसे विवेचन होता है उससमय पर्यायका लक्ष्य छूट नहीं जाता है किंतु गौणरूपसे किया जाता है और जिस समय पर्यायदृष्टिसे विवेचन होता है उससमय द्रव्य का लक्ष्य छूट नहीं जाता है किंतु गौणरूपसे किया जाता है। यदि एक नयके विवेचनमें दूसरा नय सर्वथा छोड़ दिया जाय तो वस्तुका यथार्थ कथन हो ही नहीं सकता है क्योंकि वस्तु उभयस्वरूप है इसलिए एक दृष्टिके कथनमें दूसरी दृष्टिकी सापेक्षता अवश्य रक्खी जाती है। जहाँ एक दृष्टिके कथनसे दूसरी दृष्टिकी सापेक्षता नहीं रक्खी जाती वहाँ वह एकांत दृष्टि कहलाती है, ऐसा एकांत कथन मिथ्या है, उससे वस्तुका यथार्थ प्रतिपादन नहीं होता। इसलिए जिसप्रकार कपड़े में अनेक तंतु परस्पर एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हुये हो कपड़ोंकी सिद्धिमें समर्थ होते हैं विना परस्पर की अपेक्षा रक्खे निरपेक्ष तंतु कपड़ेरूप कार्यकी सिद्धि नही कर सकते, इसीप्रकार द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नय परस्पर एक दूसरेकी सापेक्षता रखती हुई वकाका विवक्षानुसार एक मुख्य और दूसरी गौण हो जाती है । इसी परस्पर सापेक्षताको छोड़ देनेसे एवं एकांत पक्षपर आरूढ़ रहनेसे सर्वथा अनित्यताको माननेवाला बौद्धदर्शन तथा नित्यताको मानने वाला सांख्यदर्शन, सर्वथा एक माननेवाला वेदांतदर्शन आदि अनेक जैन दर्शनसे भिन्न दर्शन वस्तु की यथार्थता के विवेचक नहीं कहे जा सकते ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org