Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 457
________________ o ४३८] [ पुरुषार्थसिद्धय पाय हैं तथा व्यंजन भी क ख ग घ आदि भी अनादिसिद्ध उपस्थित हैं। जैसा कि श्रींदिगम्बर जैनाचार्यप्रणीत श्रीकातन्त्ररूपमालामें "सिद्धो वर्णसमाम्ना. यः" इस प्रथम सूत्रद्वारा वर्णोंको अनादि सिद्ध बताया गया है । इसलिए स्वर व्यंजनरूप अक्षर तो जगत्में अक्षर ( अविनश्वर ) हैं ही । ये अक्षर पुद्गलकी पर्यायरूप हैं। इन्हीं भिन्न भिन्न अक्षरों का समुदाय मिलकर नव विभक्त्यंत बन जाता है तब उस विभक्त्यंत समुदायकी पदसंज्ञा कही आती है। जिस वर्णसमुदायके अंतमें सुप् अथवा तिङ रूप विभक्ति अंतमें लगा दी जाती है वह पद कहलाता है। तथा जिन पदों के साथ अर्थ सम्बन्ध की पूर्णतासूचक क्रिया का समावेश किया जाता है वह वाक्य कहा जाता है । तथा वाक्योंके समुदायसे अनुष्ट प, आर्या, स्रग्धरा, वसंततिलका, शिखरिणी आदि श्लोकोंकी रचना हो जाती है और उन्हीं श्लोकों का समूह अर्थात २२६ दो सौ छब्बीस श्लोकों की संख्यामें इस परम पवित्र शास्त्रकी रचना हो गई है । इस रचनामें मूल तत्व वर्ण हैं, वे लोकमें प्रसिद्ध एवं अनादि सिद्ध हैं । अवशिष्ट पद वाक्य श्लोक आदि सब उन्हीं का समुदाय है, ऐसी अवस्थामें इस पवित्र शास्त्रकी रचनामें मेरी निजको कुछ संम्पत्ति नहीं है । अर्थात संसार इसे मेरी कृति समझकर मुझे महत्व नहीं दे । यहां पर स्वामी अमृतचन्द्र सूरिके अगाध रहस्यपूर्ण शास्त्रों के रसास्वाद करनेवाले पाठकों को यह बताना व्यर्थ है कि उक्त आचार्य किस कोटिके आचार्य हैं, इनकी गणना महान् उद्भट आचर्यों में परिगणित है। विशेषता यह है कि इनकी कृतिमें जो द्रव्यनिरूपणा, नयविवेचना, अनेकांतनिदर्शना; शुद्धात्मप्रर्दशना आदि अनुपम सुधारसकी छटा है वह एक निराली ही है। इनकी कृतिका पाठ करनेवाला इनकी अपूर्व सुन्दर शब्दरचना एवं तत्त्वगांभीर्यपूर्ण भावभंगीको देखकर प्रत्येक बुद्धिमान् पुरुष विना प्रथकारका नाम देखे ही कह सकता है कि यह परमपूज्य स्वामी श्री अमृतचंद्रसूरिकी कृति है। इन्होंने जिन श्रीपंचाध्यापी, तत्त्वार्थसार, समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:

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