Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
मधुवन्नवनीतं च मुचेत्तत्रापि भूरिशः ।
द्विमुहूर्तात्परं शश्वत् संसजत्यंगिराशयः ।। अर्थात् शहद ( मधु के समान नवनीत-मक्खन भी छोड़ देना चाहिये, क्योंकि उसमें भी दो मुहूर्तके पीछे निरंतर अनेक जीवराशि उत्पन्न होती रहती है।
___ इससे यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि वही घी शुद्ध एवं खाने योग्य है जो दो मुहूर्तके भीतरकी लौनीका तपाया हुआ है । आजकल यह बहुत बुरी पृथा चल पड़ी है कि बहुत दिनोंतक लौनीका संग्रह करते जाते हैं और फिर इकट्ठा उसे तपाकर घी बनाते हैं परंतु उतने समयमें उस लौनीमें अनन्त निगोदराशि तो पड़ ही जाती है किंतु त्रसजीवोंका संचार भी हो जाता है । इसलिये प्रतिदिन दो मुहूर्तके भीतर ही घी बना लेना चाहिये अन्यथा वह घी भी अभक्ष्य होता जाता है । इसलिये श्रावकों को मर्यादाके भीतर ही लौनीका घी बनाकर खाना चाहिये।
इसके सिवा जो पदार्थ पिडंरूप से शुद्ध भी है परंतु उनके भक्षणसे अनिष्ट होता है तो ऐसे शरीरको रुग्ण बनानेवाले पदार्थ भी नहीं भक्षण करने चाहिये । जैसे दही शुद्ध है परंतु ज्व राक्रांतको देनेसे ज्वर की वृद्धि एवं सन्निपातकी उत्पत्ति हो जानेकी पूरी संभावना है इसलिये ज्वरमें दहीका देना या खाना निषिद्ध है । इसीप्रकार जो पदार्थ अनिष्ट हों उन सबोंको छोड़ देना चाहिये । जो अनुपसेव्य हैं-सेवन करने योग्य नहीं हैं उन्हें भी अभक्ष्यकोटि में लिया गया है, वे भी नहीं खाने योग्य हैं। इसप्रकार भोगोपभोगपरिमाणवूतवाले पुरुषको सभी भोग्य उपभोग्य पदार्थोंकी शुद्धि एवं इष्टानिष्टता आदिका विचार करके उन्हें ग्रहण करना चाहिये । अशुद्ध, अनिष्ट, अनुपसेव्य तथा आवश्यकतासे बाहर शुद्ध भी छोड़ देना चाहिये ।
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