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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
स्वदारसंतोषव्रतके होनेपर भी स्वस्त्रीके साथ रमण करनेकी तीव्रलालसा रखना, अथवा रात्रिमें कामसेवनका समय है परन्तु लालसावश दिनमें ही कामसेवन करना, अंग नाम योनिका है, सन्तानोत्पत्तिके स्थानको योनि कहते हैं। उससे भिन्न अंगोंमें-मुख कुचादि अंगोंमें रमण करना, अपनेसे भिन्न-पुत्र पुत्री आदिका विवाह कराना, तथा दूसरेकी परणी हुईविवाहिता परन्तु परपुरुषके साथ रमण करनेवाली व्यभिचारिणी-परस्त्रीके यहां जाना उससे कामविषयवर्धक बात चीत आदि करना जो दूसरेकी विवाहिता नहीं है अर्थात् जिसका कोई स्वामी कभी नियत नहीं हुआ है ऐसी जो व्यभिचारिणी स्त्री-वैश्या आदि हैं उसके यहां कामवासनावश जाते आते रहना । ये पांच ब्रह्मचर्यव्रतके अतीचार हैं । ये अतीचार ब्रह्मचर्यव्रतमें एकदेश दूषण लगाते हैं, उसे सर्वथा नष्ट नहीं करते ।
यहांपर परिगृहीत शब्दसे उस स्त्रीसे प्रयोजन है जो एकबार विवाही जा चुकी है, चाहे वह सधवा हो चाहे विधवा हो। विधवा स्त्रीको भी परिगृहीतकोटिमें ही लिया जायेगा, उसे अपरिगृहीतकोटिमें नहीं लिया जा सकता । कारण कि परिग्रहण-विवाह एकबार ही होता है और वह कन्याका ही होता है । जिसका एकबार विवाह हो चुका है वह फिर कन्या कभी नहीं कहला सकती । कन्या कुवारी-अविवाहिताको कहते हैं, उसीका विवाह हो सकता है, जैसा कि राजवार्तिककार-श्री अकलंकदेवने कहा है-सवेद्यस्य चारित्रमोहस्य चोदयात् विवहनं कन्यावरणं विवाह इत्याख्यायते-अर्थात् सातावेदनीयकर्म एवं चारित्रमोहनीयकर्मके उदयसे कन्या का वरण करना विवाह कहा जाता है । इसलिये विवाह विधवाका कभी हो नहीं सकता, वह परिगृहीत बन चुकी । अपरिगृहीत वही स्त्री कहलाती है जिसे कभी किसी ने परिगृहीत नहीं किया है अर्थात् जिसका विवाह नहीं हुआ है, इस कोटिमें वैश्या, कन्या और अविवाहिता स्त्रियां आती हैं । जो परस्त्री है अथवा जो परस्त्री नहीं है उसके यहां बिना किसी
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