Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 440
________________ पुरुषार्थसिद्धयुपाय ] [ ४२१ प्रगट हो चुका है उतने अंशोंमें आत्मामें कर्मबंध नहीं होता। इतना और विशेष है कि जो रागभाव अशुभकर्मों का बंध करता था वह रत्नत्रय के सहबाससे शुभ करने लगता है। इससे यह भी समझना भूल है कि रत्नत्रय शुभ कर्मबंधमें कारण होता है। रत्नत्रय तो किंचिन्मात्र भी कर्मबंधमें कारण नहीं है किंतु उसके प्रगट होने से आत्माका परिणाम इतना विशुद्ध बन जाता है कि वह अशुभ प्रवृत्ति करने से हट जाता है परंतु अभीतक रागभाव उदयमें आ रहा है इसलिये वह भी अपना कार्य करता ही है । विना रत्नत्रयके वह अपना कार्य अशुभ प्रवृत्तिरूप करता था अब रत्नत्रयके एकदेश प्रगट होनेसे वह शुभमें प्रवृत्ति करने लगता है । जितने अंशों में रत्नत्रय गुणकी वृद्धि होती जाती है और रागभावकी कमी होती जाती है उतने अंशोंमें शुभप्रवृत्ति-शुभ कर्मबंध भी घटता जाता है विशुद्ध परिणाम बढ़ता जाता है । जहांपर रत्नत्रय बढ़ते बढ़ते पूर्ण हो जाता है, वहांपर रागभाव भी सर्वथा नष्ट हो जाता है इसलिये वहां फिर आत्मामें केवल विशुद्ध परिणाम रहता है, उस अवस्थामें कर्मबंध सर्वथा नहीं होता, इस कथनसे यह बात सिद्ध हो चुकी कि रागभाव ही कर्मबंध का कारण है, रत्नत्रय नहीं । बंधका कारण योगात् प्रदेशबंधः स्थितिबंधो भवति यः कषायात्त । दर्शनबोधचरित्रं न योगरूपं कषायरूपं च ॥२१५ ॥ अन्वयार्थ-( योगात् प्रदेशबंधः ) योगसे प्रदेशबंध (भवति ) होता है ( कपायात् ) कपायसे ( स्थिति घंधःभवति ) स्थितिबंध होता है ( तु ) परंतु (दर्शनबोधचरित्र) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र ( न योगरूपं कपायरूपं च ) न तो योगरूप ही है और न क.पायरूप ही है। विशेषार्थ-बंधके चार भेद बताये गये हैं, प्रकृति, प्रदेश, स्थिति,अनुभाग । जिप्सप्रकार नीमकी कडुवापन प्रकृति-स्वभाव है, गुड़ का मीठापन प्रकृति है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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