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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
उत्तर .
है यह बात कसे सिद्ध हो सकेगी ? अर्थात् देवायु आदिका बध रत्नत्रय से सिद्ध नहीं होगा परन्तु शास्त्रों में बतलाया गया है सो कैसे ?
रत्नत्रयमिह हेतुनिस्यैिव भवति नान्यस्य ।
आस्रवति यत्त पुण्यं शुभोपयोगोयमपराधः॥२२०॥ अन्वयार्थ-[ इह ] इस लोकमें अथवा इस आत्मामें [ रत्नत्रयं निर्वाणस्य एवं हेतुः रत्नत्रय निर्वाणका ही कारण [ भवति ] होता है [अन्यस्य न ] और किसीका-बंधका नहीं [तु] फिर [ यत् पुण्यं आस्रवति ] जो पुण्य का आस्रव होता है ( अयं अपराधः शुभीपयोगः) यह अपराध शुभ उपयोगका है ।
विशेषार्थ-रत्नत्रय मोक्षका ही कारण है । रत्नत्रय कर्मबंध करने में कारण सर्वथा नहीं है। यह बात ऊपर स्पष्ट की जा चुकी है फिर जो पुण्य प्रकृतियोंका आस्रव होता है वह शुभोपयोगका ही अपराध है । अर्थात् श भोपयोग ही बंधका कारण है।
भिन्न भिन्न कारणोंसे भिन्न भिन्न कार्य होते हैं। एकस्मिन् समवायादत्यन्तविरुद्धकार्ययोरपि हि । इह दहति वृतमिति यथा व्यवहारस्तादृशोपि रूदिमितः॥२२१॥ ____ अन्वयार्थ-(हि ) निश्चयसे । एकस्मिन् ) एक आत्मामें ( समायात् । समवाय होनेसे ( अत्यंतविरुद्धकार्ययोः अपि ) अत्यंत विरुद्ध कार्य करनेवालोंमें भी (यथा घृतं दहति ) जिस प्रकार घृत जलाता है (इति व्यवहारः] यह व्यवहार होता है [ अपि तादृशः व्यवहारः] उसीप्रकार बैसा व्यवहार [ रूढिं इतः ] प्रसिद्ध हुआ है।
विशेषार्थ-जहांपर दो विरुद्ध पदार्थोंका भी संबंध विशेष हो जाता है। वहाँपर एकके कार्यको दूसरेका कार्य कह दिया जाता है प्रायः ऐसा व्यवहार लोकमें देखा जाता हैं । जैसे घृतका स्वभाव शीतल है, उसके लगाने से शरीरमें शांति आती है। फिर भी जिस समय उसे अग्निमें तपा दिया जाता है और अग्नि तथा घृतके परमाणुओंका एकमएक हो जाता है
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