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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
कारण शुभ प्रवृत्ति-तीर्थंकर आहारक आदि का बंध होने लगता है। यह पहले कहा जा चुका है कि शुभप्रवृत्तिसे-शुभ योगोंसे एवं प्रशस्त रागसे शुभबंध होता है और अशुभ प्रवृत्तिसे-अश भ योगोंसे एवं अप्रशस्त रागसे अश भबंध होता है। शुभ अश भ दोनोंका बंध करनेवाले योग कषाय ही हैं । रत्नत्रय बंधके विषयमें सर्वथा उदासीन है। भावार्थ-जिस प्रकार नलसे पानी बराबर आता रहता है, परंतु जिससमय उस नलपर छन्ना (शोधनवस्त्र-पानी छानने का कपड़ा) लगा दिया जाता है तो उस समय भी पानी तो आता है परंतु गदला और जीवजंतुसहित पानीका आना रुक जाता है, साफ उज्ज्वल पानी आने लगता है। यहांपर पानी छानने का वस्त्र पानी आनेमें कारण नहीं है, पानी आने में तो वह उदासीन है, पानी आनेमें कारण तो पानी छोड़नेका समय और नलकी टोंटीका खुला रहना है। यदि पानी आनेका समय नहीं है और टोटी बन्द है तो छन्ना लगाने या हटानेसे वह पानी रुक भी नहीं सकता है। इसलिये छन्ना पानीके आने में तो उदासीन है परन्तु उसके रहनेसे जो पानी आता है वह साफ मिट्टी तृण आदिसे रहित उज्ज्वल आता है उसके बिना मलिन आता है इसलिए छन्ना उज्ज्वलतामें साधक हो जाता है, परन्तु पानीके आने में नहीं। उसी प्रकार रत्नत्रय आत्मामें प्रगट हो जाय तो भी योगकषायोंके रहते हुए कर्मबध अवश्य होता है और उनके नहीं प्रगट होनेपर भी योगकषायोंके रहते हुए कर्मबंध अवश्य होता है। योगकषायोंके अभाव में रत्नत्रयके रहते हुए भी कर्मबंध नहीं होता इसलिये रत्नत्रय कर्मबंध के विषयमें तो पानीके आनेमें छन्नाके समान उदासीन है परंतु रत्नत्रयके रहते हुए योगकषाय शुभ एवं प्रशस्त हो जाते हैं इसलिए उनसे तीर्थंकर आहारक आदि श भ प्रकृतियोंका बध होने लगता है । रत्नत्रयके रहते हुए योगोंके शुभ होनेसे श भब ध होता है इसी अपेक्षासे रत्नत्रयको तीर्थंकर आहारक प्रकृतियोंका वधक कह दिया गया है । वास्तव में वह बंधका कारण नहीं
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