Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 451
________________ ४३२ ] [ पुरुषार्थसिद्धय पाय आत्माको परमात्मा पदपर पहुंचा देता है। परमात्माकी मोक्षावस्था नित्यमपि निरुपशेषः स्वरूपसमवस्थितो निरुपघातः । गगनमिव परमपुरुषः परमपदे स्फुरित विशदतमः ॥२२३॥ ___अन्वयार्थ—( नित्यं अपि ) सदा ही (निरुपलेषः ) कर्मरजसे रहिन ( स्वरूपसमवस्थितः) अपने निजरूपमें भलेप्रकार ठहरा हुआ (निरुपघात:) उषघातरहित-अर्थात् जो किसीसे घाता न जाय ( विशदतमः ) अत्यंत निर्मल ऐसा ( परमपुरुषः) उत्कृष्ट पुरुष-परमात्मा (गगन मिव ) आकाशके समान (परमपदे ) उत्कृष्ट पद में लोक शिखरके अग्रतम स्थानमें अथवा उत्कृष्ट स्थान-निजस्वरूपके पूर्ण विकाशमें ( स्फुरति ) स्फुगयमाण होता है। विशेषार्थ-जब आत्मा एकबार कर्मोसे सर्वथा मुक्त हो जाता है, तब वह सदाके लिये कर्मरजसे मुक्त हो जाता है फिर भी उसपर कोई उपलेप-रज नहीं लगा सकता है । कारणकि कर्मरज रागद्वषसे लगता है, शुद्ध आत्मा में रागद्वेषकी संभावना कभी नहीं हो सकती, इसलिए रागद्वषविहीन श द्धात्मामें फिर कभी कर्मरज नहीं लग सकता। श द्धात्मा-परमात्मा समस्त बाह्यविकारोंसे हटकर अपने निजस्वरूप में स्थिर हो जाता है। कर्मोमें सर्वथा रहित आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप अमूर्तस्वभावमें आ जाता है इसलिये उसका फिर किसी पदार्थसे घात नहीं हो सकता । समस्त कर्मों से रहित आत्मा अत्यंत विशुद्ध आकाशके समान निर्मल हो जाता है। ऐसा परम विशुद्ध परमात्मा लोकशिखरके अग्रभागमें विराजमान हो जाता है फिर वहांसे उसका कभी आवागमन अथवा किसीप्रकारकी अशुद्धता किसी भी निमित्तसे तीनकालमें नहीं हो सकती । परमात्मा का स्वरूप कृतकृत्यः परमपदे परमात्मा सकलविषयविषयात्मा । परमानंदनिमग्नो ज्ञानमयो नंदति सदैव ॥ २२४ ॥ अन्वयार्थ-(परमात्मा ) कर्मरजसे सर्वथा विमुक्त शुद्धात्मा ( परमपदे ) उत्कृष्ट निज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org. -

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