Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 452
________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय [ ४३३ स्वरूपरूप पद में (कृतकृत्यः) कृतकृत्य होकर ठहरता है (सकलविषयात्मा) समस्त पदार्थों को विषय करनेवाला बन जाता है ( पमानंद निमग्नः ) पमानंदमें निमग्न हो जाता है । ( ज्ञानमय: ) ज्ञानस्वरूप उसका निजरूप है ऐसा वह परमात्मा ( सदैव नंदति ) सदैव आनंदरूपसे रहता है । --- विशेषार्थ- - परमात्माका स्वरूप यही है कि वह जिससमय परमात्मपदमें पहुँच जाता है उससमय कृतकृत्य हो जाता है अर्थात् उस अवस्था में उसे कोई कार्य करनेके लिये बाकी नहीं हैं । सब कुछ कर चुका । यह कृतकृत्य अवस्था भी परमात्माको क्यों प्राप्त होती है ? वह क्यों नहीं कुछ कार्य करता ? इस प्रश्न का उत्तर यह है, कार्य किया जाता है इच्छा से और आवश्यकता आदि कारणोंसे, परमात्माकेन इच्छा है और न किसी वस्तुकी आवश्यकता आदि ही उसे है । संसारमें जो कोई भी कुछ कार्य करता है वह किसी वस्तुकी चाहनासे ही करता है, दूसरे करनेवालेके रागद्वेष होता है । ईश्वर इन दोनों बातों से रहित है । इच्छाको चाहनाको लोभकी पर्याय माना गया है । परमात्मा क्रोध मान माया लोभ इन सब प्रकारके कषायभावोंसे विरक्त है । और न उसे कोई कार्य करना बाकी है, वह तो सब कंकटोंसे मुक्त होकर अपने आत्मीय स्वरूपमें तल्लीन रहता है । इसलिए जो लोग परमात्माका स्वरूप जगत्कर्तृत्व कल्पना करते हैं वे उसके स्वरूप का विपर्यास करते हैं जगतकतृत्व परमात्माका स्वरूप नहीं बन सकता । जगत् सदा अनादि निधन स्वयंसिद्ध है, उसे कोई नहीं बनाता। दूसरे परमात्मा लोक अलोकवर्ती समस्त पदार्थों का युगपत् प्रत्यक्ष करता है । परमात्माका प्रत्यक्ष इन्द्रियोंसे नहीं होता किंतु आत्मासे साक्षात् होता है । जो ज्ञान इन्द्रियोंसे होता है वह अधूरा मलिन परोक्ष होता है । इसलिए परमात्मा सकल पदार्थोंका ज्ञान साक्षात् अतींद्रिय ज्ञानद्वारा करता है । परमात्मा सांसारिक वासनाओंसे और उनसे होने वाले सुख दुःखोंसे सर्वथा मुक्त हो चुका है इसलिए वह सदा आत्माके निजगुण निजरसनिर्भर आनंद में निमग्न रहता है । आत्माका निज सुख साँसा xx Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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