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[ पुरुषार्थ सिद्धयु पाय
___ अब यहाँ पर यह शंका हो सकती है कि जिन आत्माओंमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र आदि गुण प्रगट हो चुके हैं उन आत्माओं के कर्मबंध भी पाया जाता है, जब कि रत्नत्रय आत्मीय गुण कर्मवंधके कारण नहीं हैं तब उनके कर्मबंध क्यों होता है ? इसका उत्तर यह है कि उन आत्माओंमें पूर्ण रत्नत्रय अभी नहीं है जहां रत्नत्रय हो जोता है वहां फिर आत्माकी तत्काल ही नियमसे मोक्ष हो जाती है। पूर्ण रत्नत्रय चतुर्दश गुण स्थान आयोगकेवली केअन्त समयमें होता है इसलिए उस गुणस्थान में कर्मवंध सर्वथा नहीं होता और अन्त समय में ही आत्मा मोक्ष प्राप्त कर लेता है । चतुर्थ पंचम छठे आदि गुणस्थानवी जीवात्मा के एकदेशरूप से रत्नत्रय है इसलिये उसके कर्मबंध होता है । फिर यहाँ शंका होती कि जब पूर्ण रत्नत्रय कर्मबंध का कारण नहीं है तो एकदेश रत्नत्रय भी उसका कारण नहीं होना चाहिये फिर एकदेशरत्नत्रयधारी आत्माके कर्मबंध क्यों होता है ? इसका उत्तर यह है कि जब पूर्णरत्नत्रय कर्मबंधका कारण नहीं है तो उसका एकदेश भी कमबंधका कारण नहीं हो सकता । जिसके सर्वदेशका जैसा स्वभाव होता है उसके एकदेशका भी वही स्वभाव होगा क्योंकि एकदेश एकदेश मिलकर ही तो सर्वदेश बनता है । परंतु जहांपर एकदेश रत्नत्रय है वहां एकदेश दूसरी बस्तु. है । एकदेश कहने से ही यह बात प्रगट हो जाती है कि उस रत्नत्रयकी एकदेश ही प्रगटता अभी हो पायी है, एकदेश-अंशको अभी किसी प्रतिपक्षीने दबा रक्खा है । जो प्रतिपक्षी है उसी का नाम रागभाव है। एकदेशमें अभी रागभाव स्थान पाये हुए है । इसलिये आत्मामें रत्नत्रयधारीके जो कमबंध हो रहा है वह उसी रागभावका परिणाम है । अर्थात् कर्मबंध जितना भी होता है वह रागभावके उदय में ही हो सकता है, अन्यथा नहीं । एकदेशरत्नत्रयधारी आत्मामें रागभाव अभी उपस्थित है इसलिये उसके उसी रागभावसे कर्मबंध होता है जितने अंशों में आत्मा में रत्नत्रय गुण
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