Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धयुपाय
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अनुभागबंध दोनों कषायसे होते हैं । श्लोकमें केवल स्थितिबंधको ही कषाय से बतलाया है परंतु वह केवल उपलक्षण है स्थितिबंधसे अनुभागबंधका भी ग्रहण समझना चाहिये इसप्रकार जब चारोंप्रकारके बंधोंका कारण योग और कषाय है तब सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र न तो योगरूप ही हैं और न कषायरूप ही हैं इसलिये वे बंधके कारण किसी प्रकार नहीं कहे जा सकते हैं । जिसका जो कारण है उसीसे वह कार्य हो सकता है । जैसे कपड़ा तंतुसे हो बन सकता है, मिट्टीसे नहीं । इसीप्रकार कषाय और योग ही बंधके कारण हैं उन्हींसे बंधरूप कार्य हो सकता है , सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे नहीं।
___ रत्नत्रयसे बंध क्यों नहीं होता ? दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः । स्थितिरात्मनि चारित्रंकुत एतेभ्यो भवति बंधः॥२१६॥
अन्वयार्थ -[दर्शनं ] सम्यग्दर्शन [ आत्मविनित्रितिः ] आत्माकी प्रतीति [ इष्यते ] कहा जाता है। [ आत्मपरिज्ञानं ] आत्माका सम्यकप्रकार ज्ञान करना [ बोधः ] बोध सम्यग्ज्ञान कहा जाता है । [ आत्मानेस्थितः] आत्मामें स्थिर होना लालीन होना, [चारित्र] सम्यकचारित्र कहा जाता है । [एतेभ्यः कृतः बंधो भवति ] इनसे बंध कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता। ___ विशेषार्थ-आत्मामें ही अपनी प्रतीति-दृढ़ता, आत्मामें ही अपना ज्ञान
और आत्मामें ही अपनी चर्या अर्थात लीनता जहाँपर होती है, वह निश्चय रत्नत्रय होता है । अर्थात् जिससमय आत्मीयगुण सम्यग्दर्शन, ज्ञानचारित्र प्रगट हो जाते हैं उससमय निश्चय रत्नत्रय कहलाता है। गुण आत्मासे अभिन्न है इसलिये उसका स्वरूप आत्मामें ही व्यक्त होता
है। ऐसी अवस्थामें उनसे ( रत्नत्रयसे ) कर्मबंध कभी नहीं हो सकता । यदि आत्माके गुणोंसे ही बंध होने लगेगा तो फिर आत्माकी मुक्ति असंभव हो जायेगी । अथवा मुक्तत्माओंके भी बंध होने लगेगा ।
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