Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धय पाय
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अनुभागबंध वह कहा जाता है जो कर्मों में विपाक अर्थात् उनमें रस देने की शक्ति की तीव्रता या मंदताका होना है । शुभपरिणामों से कर्मों में शुभ विपाक होता है । और अशुभपरिणामोंसे अशुभविपाक होता है । कर्मों के दो भेद हैं - एक घातियाकर्म, अघातियाकर्म । ज्ञानावरण. दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये चार कर्म घातिया हैं अर्थात् आत्माके सत्तात्मक गुणों का घात करते हैं इनमें जो उदयकाल में फलदान शक्ति का विकाश होता है वह अशुभरूपसे ही होता है और उसका परिणाम आत्मामें क्रमसे लता दारु अस्थि और शैल रूप से होता है ।
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जिसप्रकार लता काष्ठ हड्डी और पाषाण में उत्तरोत्तर कठोरता बढ़ी हुई है उसी प्रकार घातिया प्रकृतियों में - देशघातिक और सर्वघातिक प्रकृतियों में क्रमसे गुणघातकी शक्ति बढ़ती गई है । अघातिया कर्मों में शुभ अशुभके भेद से प्रकृतियों के दो भेद हैं । अशुभ प्रकृतियोंमें क्रमसे मंदता तीव्रता के भेदसे नीम, काजोर; विष और हलाहलके समान भेद हो जाते हैं कुछ परमाणु नीमकी कटुकता के समान कटुक फल देते हैं । कोई उससे अधिक कटुक कांजीरके समान फल देते हैं, कोई उससे भी अधिक विषके समान आत्माके गुणों का घात करते हैं और कुछ कर्मपरमाणु इतना अधिक रस देते हैं जैसे कि हलाहल ( जहर ) सेवन करते ही मरण कर देता है। उसी प्रकार वे कर्म्मपरमाणु आत्मीय गुणोंका सर्वथा घात कर देते हैं । शुभ प्रकृतियां में गुड़, खांड़ शर्करा और अमृत इनके समान चार प्रकार का विपाक होता है । जिसप्रकार गुड़ से अधिक मिठास और स्वाद खांड में उससे अधिक शक्कर में उससे अधिक अमृतमें होता है उसीप्रकार अघातिया कर्मो के कुछ कर्मपरमाणु गुड़के समान हलका शुभफल देते हैं कुछ खांडके समान और कुछ शर्कराके समान मीठा और उत्तम फल देते हैं कुछ कर्मपरमाणु अत्यंत मधुर फल देते हैं । नामकर्मके शुभ भेदोंमें तीर्थंकर प्रकृति आदि अमृतके समान विपाकमें फल देनेवाले हैं। स्थितिबंध और
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