Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 441
________________ ४२२] __ पुरुषार्थसिद्धयं पाय इमलीका खट्टापन प्रकृति है, मिरचका चरपरापन कृति है। इसीप्रकार आठ कर्मों में ज्ञानावरण कर्मकी ज्ञानको घात करनेकी प्रकृति है, अर्थात ज्ञानको ढकनेका स्वभाव ज्ञानावरण कर्ममें है, दर्शनको ढकनेका स्वभाव दर्शनावरणमें है, दर्शनावरण कर्म आत्माके सत्तावलोकन रूप दर्शनको ही ढकता है। अन्यावाध गुणको वेदनीय कर्म ढकता है, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्रको मोहनीय कर्म ढकता है, अवगाहन गुणको आयुकर्म ढकता है सूक्ष्मत्व गुण को नामकर्म ढकता है; अगुरुलघु गुणको गोत्रकर्म ढकता है, और वीर्य गुण को अंत रायकर्म ढकता है। इस प्रकार प्रकृति स्वभावका नाम है भिन्न २ कर्मों में भिन्न २ गुणोंको ढकने का स्वभाव है । स्वभाव और स्वभाव वालेमें अभेद होता है इसलिये जिस कम की जो प्रकृति है उसके निमित्तसे उस प्रकृतिके धारण करने वाले कम का भी वही नाम है। अर्थात् कमका स्वभाव-प्रकृति कहलाती है परन्तु कर्म भी प्रकृति के नाम से कहा जाता है । ये प्रकृतियां कार्माणवर्गणाओं में नियत हैं, जिस प्रकार का आत्मा के परिणामों में विकार का आधिक्य होता है उसी प्रकार की प्रकृति में अधिक रसदानशक्ति भी हो जाती है । इसप्रकार भिन्न भिन्न आठ कर्मों का बंध करना प्रकृतिबंध कहलाता है। प्रदेशबंध वह वह कहा जाता है कि आत्मा के समस्त-असंख्यात प्रदेशों में जो अनंतानंत कार्माणवर्गणाओं का कर्मपर्याय-रूप परिणमन होकर संबंधविशेषआत्मप्रदेश और कर्मप्रदेष इन दोनों का एकक्षेत्रावगाहित्व हो जाता है अर्थात् अनंतानंत संख्या में जिन कर्मप्रदेशों का आत्मा के साथ संबंध हो जाता है वही प्रदेशबंध के नाम से कहा जाता है । ये दोनों प्रकार के बंध प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध योगों से होते हैं, मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणा इनमें से किसी एक वर्गणा केअवलंबन से जो आत्मा के देशों के हलन चलन होता है वही योग कहलाता है । जिस समय उक्त तीनों वर्गणाओं में से अन्यतम किसी एक वर्गणाके आश्रय से आत्मप्रदेशों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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