Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
३६८ ]
_ [ पुरुषार्थसिद्धयुपाय
है जहां प्राणिरक्षण, और इंद्रियविजय किया जाता है, संयममें इन्हीं दो वातोंकी मुख्यता रहती है । इसप्रकार दश भेद धर्म के हैं, इन्हें अवश्य धारण करना चाहिये।
द्वादश अनुप्रेक्षा अध्र वमशरणमेकत्वमन्यताऽशौचमास्रवो जन्म ।
लोकवृषबोधिसंवरनिर्जराः सततमनुप्रेक्ष्याः ॥२०॥ अन्वयार्थ- [अध्रु वं] संसार में कोई वस्तु स्थिररूपसे सदा ठहरनेवाली नहीं है [अशरणं ] संसारमें कोई किसीका शरणभूत नहीं है, [एकत्वं ] जीव अकेला ही जन्मता है अकेला ही मरता है सबकुछ सुख दुःख अकेला ही भोगता है, [अन्यता ] जीव समस्त वस्तुओंसे भिन्न है, औरों की तो बात क्या शरीरमात्रसे भी भिन्न है. [ अशौचं ] यह शरीर महा अपवित्र है. इसमें पवित्रताका लेशमात्र भी नहीं है । [ आस्रवः ] संसारी जीवके प्रतिक्षण अनंतानंत कमाँ का आगमन होता रहता है, कोई क्षण ऐसा नहीं है जिस समय इसके अनंतानंत वर्गणाओंका पिंडस्वरूपसमयप्रबद्ध नहीं आता रहता है। इसी कारण यह आत्मा नाना दुःखोको भोमता रहता है । [ जन्म ] यह जीव संसारमें कौके उदयसे चारों गतियों में जन्म लेता रहता है । द्रव्य क्षेत्र कालादिरूपसे नरक गतिके अपार दुःखोंको यह जीवात्मा तैतीस सागर ही नहीं किंतु अनेक तैतीस सागरों तक भोगता रहता है, नरकगति ही एक ऐसी गति है जहांसे निकलनेकी अभिलाषा इस जीवके निरंतर लगी रहती है, अन्य गतियोंमें यह बात नहीं है, अन्य जिन गतियों में जीव जाता है दुःखी रहनेपर भी वहीं रहनेकी इच्छा रखता है। इमीप्रकार तिर्यञ्च मनुष्य एवं देवगतियों में भ्रमण करता हुआ. कभी शांतिलाम नहीं कर पाता है । यही इसे संसार लगा दुबा है। लोकवृषवोधिसंवरनिर्जरा:] लोक-अनुप्रक्षा, धर्म-अनुप्रेक्षा. रत्नप्रय अनुप्रेक्षा, संवरअनुप्रेक्षा और निर्जरा अनुप्रेक्षा ये बारह अनुप्रेक्षायें [ सततं अनुप्रेक्ष्याः ] निरंतर चितवन करने योग्य हैं।
विशेषार्थ- इन बारह भावनाओंके भानेसे बुद्धि संसारसे एवं शरीर कुटुम्ब आदि सभी वाह्य पदार्थों से उदास होकर रत्नत्रय एवं धर्मकी ओर झुक जाती है, वहीं दृढ़ हो जाती है, आत्मामें जब यह विवेक जागृत होता है कि संसारमें कोई पदार्थ सदा स्थिर नहीं रहता सभी नयेसे पुराने हो जाते हैं और जो पुराने हैं वे उस पर्यायको छोड़कर दूसरी पर्याय धारण कर लेते हैं, सभी अनित्य हैं, क्षणविनश्वर हैं तब आत्मा समस्त बाह्य पदार्थों से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org