Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 427
________________ ४०८] [पुरुषार्थमिद्ध च पाय अन्वयार्थ- ( क्षुत्त ष्णा ) क्षुधा पिपास-भूख प्यास ( हिममुष्णं ) शीत और गरमी ( नग्नत्वं ) वस्त्रादि रहित नग्न शरीर ( याचना ) चाहना या मांगना (अरति) किसी अनिष्ट वस्तु से अरुचि ( अलाभ ) आहारादि का लाभ नहीं होना (दंशो मशकादीनां ) डांस मच्छर बीछू ततैया सर्प आदि द्वारा काटना (आक्रोशः)क्रोध करना(व्याधि दुखं] शरीर में किसी रोग होने से दुख होना ( अंग मलम् ) शरीर में मिट्टी लिपट जाय मल और पसीना आजाय ( स्पर्शश्च तृणाहीनां ) तिनका कांटा काँच सुई आदि चुभ जाय ( अज्ञानं ) बार २ बनाने समझाने पर भी ज्ञान नहीं होना ( अदर्शनं ) वस्तु का स्वरूप दर्शन नहीं होना [प्रज्ञा ] श्रुतिज्ञान अवधि ज्ञानमनःपर्ययज्ञान होने पर भी [ सत्कार पुरुस्कारः ] अनेक रिद्धियां और ज्ञान बढ़ने पर भी सत्कार [ आदरभाव ] [ शैया ] कांटा पत्थर वाली जमीन में शयन करना [चर्या ] चलने में कोई वाधा आ जाय [ बधो] कोई मोरे या वांधे या जान से मार डाले [ निषधा ] बैठने में कोई वाधा आ जाय [ स्त्री ] स्त्रियों का देखना आदि अथवा कोई स्त्री रंजायमान करे । [ द्वाविंशति ] वावीस [एने परिषोडब्या परिषहाः ] ये वावीस परीषह सहन करना [ सतत ] निरंतर संक्लेशयुक्तमनसा ] क्लेश रहित मन से [संक्लेश निमित्त भी तेन ] संक्लेश के निमित्त कारण मिलने पर उनके भय से । विशेषार्थ- संसारी राग द्वषी प्राणी जिन बाईस वातों में मग्न रहता है । और उन वाईस बातों को सहन करने में असमर्थ वन जाता है और क्षुधा प्यास आदि वाधाओं के मिटाने के लिये अनेक आरंभ और उपाय करता है और उन उपायों से खोटे कर्म वांधना है । परन्तु नग्न दिगम्वर वीतरागी मुनिराज उन वाईस परिषहों को बिना खेदपूर्ण समताभाव और पूर्ण शांति से सहन करते हैं ! कोई प्रयत्न नहीं करते हैं । इसलिए वे परीषह विजयी साधु कहे जाते हैं और उन परीषहों के विजय से वे शुभोपयोग और शुद्धोपयोग से मोक्ष प्राप्त करने में समर्थ बन जाते हैं। वाईस परीषहों का भिन्न २ उल्लेख क्षुधातृष्णा-मुनिराज अनेक उपवास भी करते हैं । ऐसी अथवा आहार ग्रहण करने के प्रारंभ में ही यदि अंतराम आ जाय तो आहार और जल भी ग्रहण नहीं करते हैं। ऐसी दशा में उन्हें भूख भी सताती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

Loading...

Page Navigation
1 ... 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460