Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 434
________________ पुरुषार्थसिद्धयपाय ] [ ४१५ कीड़ा वन गया है सुबह मध्याह्न शाम तक खाने पीने में लोग लगे रहते हैं ऐसे हीन हेरा काल में भी मुनिराज जो जिनेन्द्र भगवान के लघु नंदन कहे जाते हैं निर्भय होकर निरपेक्ष वृत्ति से सर्वत्र विहार कर रहे हैं यह आश्चर्य की बात है। ऐसे हीन संहनन में क्षुधा प्यास परीषह उपसर्ग, निंदा गाली तिरस्कार सब कुछ सहन करते हुए अपने समता भाव से स्वात्म साधना में वर्तमान मुनिगण लगे हुए हैं यह महान गौरव की बात है । ऐसे परम पूज्य मुनिराजों के पूत चरणों में बड़ी श्रद्धा भक्ति से नमस्कार करना उनकी स्तुति करना उन्हें विशुद्ध आहार देना उनकी वैयावृत्ति करना प्रत्येक श्रावक का कर्तव्य है। कुछ लोग अपने को दिगम्बर जैन कहते हुए भी दिगम्बर नग्न साधुओं को द्रव्यलिंगी बताते हुए उनका तिरस्कार करते हैं यह उनका तीव्र मिथ्यात्व कर्म का उदय है। जो उन्हें दुर्गतियों में ले जायगा । जो हो होनहार भी बलवान है । जो सच्चे लाखों रुपयों के रत्न को पाकर भी उसे काँच समझ कर फेंक रहे हैं। ऐसे लोगों को कहाँ तक समझायाजाय सब समझाना ऊसर वृष्टि के समान है । यदि किसी पुण्योदय से सद्बुद्धि हो जाय तो वे अपना कल्याण कर सकते है। मुनिधर्म गृहस्थ को भी पालना चाहिये इति रत्नत्रयमेतत् प्रतिसमयं विकलमपि गृहस्थेन । परिपालनीयमनिशं निरत्ययां मुत्तिमभिलषता॥२०६॥ अन्वयार्थ - (इति) इस प्रकार (एतत रत्नत्रयं । यह रत्नत्रय (प्रति समयं ) हर समय ( विकलं अपि ) एकदेशरूपसे भी (निरत्ययां ) अविनश्वर (मुक्ति अभिलषता ) मुक्तिको चाहने वाले ( गृहस्थेन ) गृहस्थ के द्वारा ( अनिशं ) निरंतरं (परिपालनीयं ) अच्छी तरह पालन करना चाहिये। विशेषार्थ- चारित्र के पहले सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का प्राप्त करना तो परमावश्यक है ही, उसके पश्चात् प्राप्त करने योग्य सम्यक् चारित्र है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460