Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[ पुरुषार्थसिद्ध युपाय
संसारी जीवों की क्रियात्मक प्रवृत्ति ही आत्मा को अधोगति एवं ऊर्ध्व गति में ले जाने का कारण है, इसलिये परम उपकारी श्रीजैनाचार्य ने संसार की कारणीभूत क्रियाओं का निषेद और मोक्ष की कारणीभूत क्रियाओं का विधान किया है । यह श्रीपुरुषार्थसिद्धय पाय शास्त्र भी चारित्र ग्रंथ है इसलिये इसमें मुख्यता से चारित्र का ही निरूपण किया गया है । चारित्र के दो भेद हैं एक साक्षात मोक्षसाधक, एक परंपरा मोक्षसाधक । मुनियोंका चारित्र साक्षात् मोक्षसाधक है, उसका द्वितीय नाम सकलचारित्र है। गृहस्थका चारित्र परंपरा मोक्षसाधक है, उसका द्वितीय नाम विकलचारित्र है। इस शास्त्र में मुख्यता से गृहस्थचार-श्रावकाचार का वर्णन है अर्थात प्रथम ३० तीस कारिकाओं (श्लोकों) में सम्यग्दर्शनका कथन, उससे आगे छह कारिकाओं में छत्तीस कारिका तक सम्यग्ज्ञानका विवेचन, पीछे एक सौ साठ कारिकाओं में श्रावकों के चारित्र का निरूपण है । अंत में१२ बारह कारिकाओं में अर्थात एकसौ सत्तानवे कारिकारने लेकर दोसौ आठवीं कारिका तक सकलचारित्रका निरूपण हैं। यद्यपि सकलचारित्रका पालन मुनियों के लिये प्रधान है वे ही उसे पूर्णता से पाल सकते हैं, इसलिये वे ही इस संसार समुद्र को पार कर मोक्षलक्ष्मी को पा लेते है। परंतु गृहस्थ भी मोक्षलक्ष्मी की इच्छा रखता है इसलिये उसे भी इस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सकलचारित्र रुप सम्यकचारित्रको पालन करना चाहिये । यदि वह गृहस्थाश्रम में रहने के कारण बाधकनिमित्तों के रहने से पूर्णता से संयमका पालन नहीं कर सकता है तो उसका एकदेश ही पालन करना चाहिये आचार्यवर्य श्री अमृतचंद्र मूरि के इस कथन से यह बात भलीभाँति सिद्ध होती है कि जो चारित्र मुनियों के लिये कहा गया है उसका एक देश गृहस्थ को अवश्य पालना चाहिये। कारण जितने भी मुनियों के व्रत हैं वे त्रस और स्थावर जीवों की रक्षा के लिये है मुनियों द्वारा उन जीवों की पूर्ण रक्षा की जाती है और गृहस्थों द्वारा आरंभजनित हिंसा नहीं रोकी
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