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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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जा सकती इसलिये वे एकदेश व्रत का पालन कर सकते हैं । इसलिये जो व्रत मुनियों के हैं वे सब एकदेश रूप से गृहस्थों को अवश्य पालना चाहिये ।
___ गृहस्थों को मुनिपद धारण करना चाहिये बडोद्यमेन नित्यं लब्ध्वा समयं च बोधिलाभस्य ।
पदमवलंब्य मुनीनां कर्तव्यं सपदि परिपूर्ण ॥ २१०॥ अन्वयार्थ-[ नित्यं बद्धोयमेन ] सदा प्रयत्नशील गृहस्थ के द्वारा [ बोधिलाभस्य समयं लब्ध्वा ] रत्नत्रय की प्राप्तिका समय पाकर [च ] और [ मनीनां पदं अवलंव्य ] मनियों के पद को धारण कर [ सपदि ] शीघ्र ही [ परिपूर्ण कर्तव्यं ] संपूर्ण करना चाहिये । __ विशेषार्थ - गृहस्थों का कर्तव्य है कि वे सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान,सम्यक्चारित्रस्वरूप रत्नत्रय की प्राप्ति के लिये सदैव प्रयत्नशील बने रहें उद्योग करते करते रत्नत्रय प्राप्तिका समय प्राप्त करलें, पीछे मुनिपद धारण कर उस पाये हुए रत्नत्रय को शीघ्र ही पूर्णता से प्राप्त कर लें, विना मुनिपद धारण किये रत्नत्रय पूर्णता से नहीं प्राप्त हो सकता, इसलिये मुनिपद धारण करके मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करना प्रत्येक गृहस्थ का अंतिम ध्येय होना चाहिये ।
रत्नत्रय कर्मबंध का कारण नहीं है असमय भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबंधो यः ।
स विपक्षकृतोवश्यं मोक्षोपायो न बंधनोपायः॥२११॥ अन्वयार्थ-[ असमग्र ] एकदेशरूप [ रत्नत्रय भावयतः ] रत्नत्रय को पालन करने वाले पुरुष के । यःकर्मबंधः अस्ति ] जो कर्मबंध होता है [ सः विपक्षकृतः ] वह रत्नत्रयके विपक्षभूत राग द्वपका किया हुआ है तथापि ( अवश्यं मोक्षोपायः ) वह नियमसे मोक्षका कारण भूत है
इन बंधनोपायः ] बंधनका कारण नहीं है। ____ विशेषार्थ-जो पुरुष एकदेश रत्नत्रय को धारण करता है उसके जो शुभ कर्मोंका बंध होता है बह रत्नत्रयसे नहीं होता किंतु कर्मबंधके कारण-कषायभावों से ही होता है, क्योंकि रत्नत्रय आत्मा का गुण है।
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