Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 428
________________ पुरुषार्थसिद्धपाय ] है प्यास भी जोर से लगती है परन्तु मुनिराज उसे कर्मोदय समककर और उस भूख प्यास को शरीर का रोग समझकर उस भूख प्यास से थोड़ा भी खेद नहीं करते हैं । किन्तु निर्विकार भाव से उस वाधा को शांति और समाज भाव से सहन करने में ही आनंद मानते हैं । इसलिये भूख प्यास की वाधा पर विजय पाने में मुनिराज समर्थ हैं । साय [ ४०६ वास्तव में शरीर दिना भूख प्यास को दूर किये अधिक दिन ठहर नहीं सकता है | अन्न पानी का लेना अनिवार्य आवश्यक है परन्तु इंद्रिय विषयों में आनंद मानने वाले गृहस्थ दिन में रात में ५/६ वार स्वाद भोजन करते हैं । वे शरीर को पुष्ट बनाना ही जीवन का लक्ष्य बना लेते हैं । परन्तु मुनिराज भी बिना आहार लिये शरीर की रक्षा करने में असमर्थ हैं, किन्तु वे आहार शरीर पोषण के लिये नहीं करते हैं, उनका लक्ष्य धर्म साधन और रत्नत्रय की साधना है इसीलिये वे नीरस शुद्ध भोजन दिन में एक बार ही करते हैं । फिर जल भी नहीं लेते हैं । सो भी बीच २ में २/४ और अधिक दिन उपवास करते हैं । 1 हिम उष्ण परीषह - जब भयंकर तीत्र शीत ( ठंड ) पड़ती है तब पोखर तालाब का जल भी जम जाता है फिर वरफ की हवा तेज चलती है उस समय सभी मनुष्य थर-थर कंपते हैं दाँत कड़कड़ाते हैं । ऐसी असह्य सर्दी में गृहस्थ लोग ऊनी वस्त्र रुई के वस्त्र पहनते हैं । रात्रि में रुई से भरी मोटी रजाई मोटा रुई से भरा गद्दा कंबल आदि ओढ़ते बिछाते हैं । परन्तु मुनिराज उस तीव्र सर्दी में भी नग्न रहते हुए चलते हैं रात्रि में काष्ठ के पटा पर या चटाई पर लेटते हैं । और ध्यान में लीन होकर उस ठंड की बाधा को समता और शांति से सहन करते हैं । शरीर से उन्हें ममत्व नही है । इस प्रकार हिम ( शीत ) परीषद को वे सहन कर विजयी कहलाते हैं । इसी प्रकार गरमी की बाधा को भी वे शांति से सहन करते हैं । जब ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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