Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 421
________________ ४०२ ] [ पुरुषार्थसिद्धयुपाय शक्ति भी युक्तिवाधिजल द्रवीभूत पदयात बराबर एवं एक की गति जलभाग प्रदेशमें किसी पुरुषका गमन शक्य भी है ? यदि नहीं है तो फिर उसकी गोलाईका प्रमाण किस आधारसे सिद्ध किया जाता है ? यदि पूर्व पश्चिम थोड़ी देरके लिये गोल भी पृथ्वी मान ली जाय तो उत्तर दक्षिणमें उसे गुड़की भेली एवं थालीके समान चकरी मानी जाय तो उसका निषेध एवं गोलाईकी पुष्टि वहां किस प्रबल युक्ति अवाधित प्रमाण द्वारा सिद्ध की जा सकती है सो उन गोल पृथ्वी स्वीकार करनेवालोंको थोड़ा विचार करना चाहिये । जिसप्रकार पृथ्वीकी गोलाई प्रमाणयुक्तिबाधित है उसीप्रकार उसका भ्रमण करना भी प्रमाणबाधित है। उसीप्रकार उसकी आकर्षणशक्ति भी युक्तिबाधित है। जहां गमन होता है वहां जलस्थिति स्थिर नहीं रह सकती, क्योंकि जल द्रवीभूत पदार्थ है वह हिलती हुई पृथ्वी पर चारों ओर फैल जायेगा, परंतु जलस्थिति बराबर एवं एक दिशा में गमनशील देखी जाती है,इत्यादि अनेक बातें ऐसी हैं जो पृथ्वी की गति में पूर्ण बाधक हैं इसलिये पृथ्वी स्थिर है और सूर्य चंद्र आदि ज्योतिष्चक्र ही भ्रमणशाली हैं। पृथ्वीमें आकर्षण माननेसे भी अनेक दोष आते हैं क्या उसका आकर्षण मध्य केंद्र परमाणुओंमें माना जायेगा या सर्वत्र या किसी खास प्रदेशों में ? यदि सर्वत्र है तो ऊपर से गिरा हुआ फल वहीं क्यों नहीं रुकता वह लुढ़क कर क्यों बढ़ जाता है। यदि केन्द्रमें ही आकर्षणता है तो वहां से आगे पृथ्वी ढालू कर देने से डाली हुई वस्तु वहां नहीं रुकती किन्तु ढाल जमीन में चली जाती है सो नहीं होना चाहिये । इसीप्रकार अधिक परमाणुओं में आकर्षणता मानने पर भी ढालू पृथ्वी में वह बाधित हो जाती है और भी अनेक युनियाँ इन भ्रामक वातों को सिद्ध नहीं होने देतीं । इसलिये लोकव्यवस्था जैसी कुछ जैनागममें कही गई है वह सर्वज्ञदेव द्वारा कही गई है वही प्रमाणभूत है, लौकिक युक्तियां उस व्यवस्थाका बाधन नहीं कर सकती हैं किन्तु जितने अंशों में ठीक ठीक खोज होती जाती है उनने अंशोंमें जैनधर्मके अनुकूल ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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