Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[ पुरुषार्थसिद्धयुपाय
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जिसमें अनादिकालसे तीर्थंकर जन्म धारण करते आये हैं और करते रहेंगे । हुंडावसर्पिणीकालदोषसे वर्तमानयुगमें कुछ तीर्थंकरोंने अन्यत्र जन्म धारण किया था। इस अयोध्याके नीचे एक स्वस्तिक चिह्न है जो सदा अंकित रहता है। श्रीसम्मेदशिखर भी इसी आर्यखंडमें है जहाँ से अनंत तीर्थकर (चौबीसी) और अनंत केवली मोक्ष जा चुके और जाते रहेंगे, उस तीर्थराज-सम्मेदशिखरके नीचे भी स्वस्तिक का चिन्ह है, वह भी अयोध्या के समान सदा स्थायी है। वर्तमानमें अमरीका, अफ्रीका, योरुप, एशिया, आदि ये जो महाद्वीप समझे जाते हैं वे सब इसी आर्यखंडमें शामिल हैं। भारतवर्ष चीन जापान ये सब ऐशियामें गर्भित हैं । आर्योंके अनेक भेद हैं, कोई आचरणकी अपेक्षा आर्य होते हैं, कोई केवल क्षेत्रकी अपेक्षा आर्य होते हैं । अमरीका योरुप आदिके रहनेवाले और भारतवर्ष में रहनेवाले मुसलमान ईसाई आदि ये लोग केवल आर्यक्षेत्रमें उत्पन्न होनेकी अपेक्षा आर्य हैं बाकी इनके आचार सब म्लेच्छोंके जैसे हैं। इसप्रकार भरतक्षेत्रका छठा खंड आर्यक्षेत्र है उसीके भीतर यह सब रचना है। ऐसी अवस्थामें वर्तमान खोज बहुत तुच्छ है फिर दुनियांका माप कल्पितकर उसे गोल बताना यह सब मिथ्या कथन है । लोक अनादिनिधन है उसकी समस्त रचना ज्यों की त्यों रहती है, केवल पर्यायोंकी पलटन होती रहती है किंतु भरतक्षेत्रके कुछ हिस्सेमें छठे कालके अंतमें प्रलय हो जाता है । वह प्रलय कालके परिणमनसे स्वयं होता है किसीका किया हुआ नहीं होता । प्रलयकालमें मनुष्य विजया पर्वतकी गुफाओंमें, लवणसमुद्र की वेदिकाके नीचे आदि स्थानोंमें चले जाते हैं, कुछ स्त्रीपुरुषोंको देवगण इधर उधर रख देते हैं कुछ प्रलयमें मर भी जाते हैं, जिन्हें देव रख देते हैं और जो स्वयं चले जाते हैं वे कुछ काल पीछे जब प्रलय होना रुक जाता है तब उस क्षेत्रमें फिर आ जाते हैं । प्रलय के पीछे जो रचना होती है वह भी स्वयं होती है,
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