Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 424
________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [ ४०५ MM वह रचना किसी परमात्माद्वारा की जाती हो ऐसा जैनसिद्वांत नहीं स्वीकार करता, ऐसा मानना युक्ति प्रमाणसे बाधित है और न जैनसिात समस्त पृथ्वीकी सृष्टि और प्रलय होना ही मानता है। इस प्रकार लोकको स्वरूप चितवन कर वस्तुव्यवस्थाका एवं जीवोंकी स्थिति क्षेत्र आदिका यथार्थ बोध करना चाहिये । धर्म भावनामें धर्मका स्वरूप चिंतवन करना चाहिये । धर्मका लक्षण आचार्योंने वस्तुस्वभाव बतलाया है; 'वत्थुसुहावो धम्मो' जो जिस वस्तुका स्वभाव है वही उसका धर्म है; आत्माका स्वभाव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र आदि गुण स्वरूप है इसलिये वे गुण ही आत्मा के धर्म हैं उनके स्वरूपका सदैव चितवन करनेसे उनमें अभिरुचि एवं दृढ़ता होती है । दूसरा धर्मका लक्षण-"चारित्तं खलु धम्मो" चारित्रको ही धर्म कहा गया है । यह लक्षण भी आत्माका वस्तुस्वभाव है। प्राप्तव्य मार्गकी मुख्यतासे चारित्रको प्रधानतासे कहा गया है । चारित्रसे सम्यकचारित्रका ग्रहण है । यह चारित्र ही आत्मसिद्धि में एवं मोक्षप्राप्ति में प्रधान कारण है । विना क्रिया रूप चारित्रका धारण किए और सातवें गुणस्थानसे भावरूप चारित्र धारण किए आत्मा वीतरागी नहीं बन सकता इसलिए चारित्र ही धर्म है वही उपादेय है । चारित्र सम्यग्दर्शनके विना होता नहीं, जहां सम्यग्दर्शन होता है वहां सम्यग्ज्ञान सुतरां हो जाता है इसलिए चारित्रको धर्म कहनेसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान इनका ग्रहण स्वयं सिद्ध है। धर्म भावनामें धर्म्यध्यानका स्वरूप भी बिचारना चाहिये । यह ध्यान चतुर्थ गुणस्थानसे सातवें गुणस्थानतक होता है । आज्ञाविचय; अपायविचय, विपाक विचय और संस्थानविषय ये उस धर्म्यध्यानके चार भेद है। इनका स्वरूप पहले कहा जा चुका है । और भी धर्मोंकेउत्तम क्षमा आदिक जो दश भेद हैं उनका भी स्वरूप विचारना चाहिये । इसप्रकार धर्मभावनाका विचार करना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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