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पुरुषार्थसिद्धयुपाय]
वस्तुव्यवस्था सिद्ध होती जाती है । जितने अंशों में जैनधर्मके सिद्धांतों से प्रतिकूलता है उतने ही अंशोंमें वह खोज अधूरी एवं विपरीत है। अभीतक पाश्चात्य विद्वान् जो कुछ खोज स्थिर करते हैं, कालांतरमें उसे स्वयं गलत बतलाते हैं, उत्तर ध्रुव आदिका कभी कुछ पता लगाना, कभी उससे भी आगे उसकी खोज बताना, ये सब बातें उनके अधूरे और पूर्वापर विरुद्ध कथनकी सूचक हैं ।
लोकके बीचमें चौदह राजू लम्बी एक प्रसनाली है उसीमें त्रस पाये आते हैं, उससे बाहर त्रसोंका जन्म नहीं होता, स्थावर उससे बाहर भी हैं । इसी त्रस नालीमें नीचे नरक और भवनवासी तथा व्यंतर देवोंके भवन हैं, मध्यमें मनुष्य तिर्यंच और कुछ व्यंतरदेव हैं। मध्य लोकमें जम्बूद्वीपसे लेकर असंख्यात द्वीप और लवण समुद्रसे लेकर असंख्यात समुद्र हैं । किन्तु मनुष्य ढाई द्वीप तक ही रहते हैं आगे किसीप्रकार जा भी नहीं सकते । तिर्यंच आगे भी रहते हैं, एकलाख योजन जम्बूद्वीप है।वह गोल है उसे वेष्टित किये हुए लवण समुद्र है, वह उससे दूना है, वह भी गोल है । उससे दूना आगेका द्वीप, उससे दूना आगेका समुद्र इसीप्रकार द्वीप समुद्र क्रम से दूने दूने होते गये हैं । ये सब असंख्यात द्वीप, समुद्र एक राजूप्रमाण हैं, उस नाली एक राजूप्रमाण ही चौड़ा है यहांपर योजनका परिमाण दो हजार कोसका है । जितने भी अकृत्रिम पदार्थ हैं उनका माप बड़े योजनसे लिया जाता है । कृत्रिम वस्तुओंका माप छोटे योजनसे लिया जाता है वह योजन चार कोसका होता है । जम्बूद्वीप के एकसौ नब्बे समान टुकड़े करनेपर एक टुकड़े प्रमाण भरतक्षेत्र है वह पांचसौ छब्बीस योजन और छह कला अर्थात् एक योजनके उन्नीस भागोंमेंसे छह भागप्रमाण है। इसी भरतक्षेत्रके विजयार्ध पर्वत और गंगा सिन्धू इन दो नदियोंके कारण छह खंड हैं जिनमें पांच म्लेच्छखंड हैं और एक आर्यखंड है, आर्यखंड में ही अयोध्या नगरी है
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