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[पुरुषार्थ सिद्धधुपाय
नामस्थापनादिक हैं उनका मन वचन कायसे रोकना, अर्थात् नामादिकसे होनेवाले पापोंको रोकना इसीका नाम प्रत्याख्यान है। जो पापकारणरूप नाम है उसे स्वयं नहीं करना, दूसरेसे नहीं कराना, और न करते हुएका अनुमोदन करना, यह नाम प्रत्याख्यान हैं । पापबंधके कारणभूत एवं मिथ्यास्वप्रर्वतक जो मिथ्या देव हैं उनकी स्वयं स्थापना नहीं करना, दूसरेसे नहीं कराना और करते हुएकी अनुमोदना नहीं करना, यह स्थापना प्रत्याख्यान है । जो पापयुक्न द्रव्य है अथवा जो निर्दोष होनेपर भी तपमें बाधा लानेवाला द्रव्य है, उसका स्वयं नहीं भोजन करना, दूसरे से नहीं कराना और करते हुएकी अनुमोदना भी नहीं करना, यह द्रव्य प्रत्याख्यान है। जिस क्षेत्रमें असंयमभाव उत्पन्न होता हो अथवा जिसमें संयमकी हानि होती हो उसका स्वयं छोड़ देना, दूसरेसे छुड़ाना, छोड़ते हुएकी प्रशंसा करना क्षेत्रप्रत्याख्यान है । इसीप्रकार जिसकालमें असंयमभाव होता हो उसे छोड़ना, छुड़ाना, छोड़ते हुएकी प्रशंसा करना कालप्रत्याख्यान है । तथा मन वचन काय एवं कृत कारित अनुमोदनासे मिथ्यात्वादि दुर्भावोंको छोड़ना भावप्रत्याख्यान है ।
__जो साधु अपराधोंको छोड़ देते हैं उनकी गंध भी नहीं सहन करते हैं, तथा शरीरसे भिन्न अपने अत्मातत्त्वको स्वीकार करते हैं, जो नाम स्थापना आदि शुद्धोपयोगमें कारण पड़ते हैं उन्हींको सेवन करते हैं वेही मोक्षमार्गके आराधक एवं प्रत्याख्यानकर्ममें सावधान हैं। तथा जो सचित्त, अचित्त, पापयुक्त, निर्दोष परिग्रहोंका परित्याग करते हैं, चारोंप्रकारके आहार का परित्याग करते हैं, जिनेंद्रदेवकी आज्ञा और आचार्यों की आज्ञाके अनुसार ही सदा प्रत्याख्यानकर्म करते हैं वे प्रत्याख्यानकर्मकुशल साधु कहे जाते हैं । तथा जो दश प्रकार अनागत आदि प्रत्याख्यानोंको करते हैं वे प्रशंसनीय साधु हैं । अनागत आदि दश प्रकार प्रत्याख्यान इसप्रकार हैअपनी सामर्थ्य को विचार कर जो चतुर्दशी आदि पर्वो में करने योग्य
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