Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

Previous | Next

Page 374
________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] पीछेके दोमें नहीं । यहांपर यह शंका उठाई जा सकती है कि 'बिना देखे बिना झाड़ेपोंछे उठाना और धरना ये दो ही अतीचार होने चाहिये,विस्तर बिछानेको अलग और मलमूत्र क्षेपणको अलग क्यों ग्रहण किया है ? इसका उत्तर यह है कि प्रोषधोपवासके दिन अन्यान्य गृहस्थाश्रम संबंधी कार्य तो सब बंद हो जाते हैं, केवल पूजाके उपकरण और विस्तरोंसे संबंध रह जाता है, इसलिये उनका अलग अलग प्रमाद होनेसे अलगअलग अतीचार कहा गया है । मलमूत्रकफादिक इनसे भिन्न ही वस्तु हैं, क्योंकि उपकरण एवं आसन तो व्यवहारके उपयोगी वस्तुग हैं परंतु मल मूत्रादि तो व्यवहारोपयोगी पदार्थ नहीं हैं, यदि उसे पृथक् न गिनाया जाता तो व्यवहारोपयोगी पदार्थोके गिनानेपर भी उसकी ओर ध्यान नहीं जाता; स्वतत्र गिनानेसे उसके क्षेपण करते समय भी भूमिको देखभाल करनेका ध्यान तुरंत आ जाता है क्योंकि प्रत्येक अतीचार-दूषणके बचाने का व्रती विचार किया करता है । प्रत्येक बातके पालनेकी चेष्टा करता है, इसलिये पृथक पाठ रहनेसे विशेष सावधान रहनेके लिये चित्त आकर्षित हो जाता है, अन्यथा नहीं होता । प्रोषधोपवासको भूल जाना, उसकी किसी विधिका स्मरण नहीं रहना कभी पर्वसमयको ही भूल जाना; और प्रोषधोपवासमें शिथिलतावश अनादर करना अर्थात् उपेक्षाबुद्धिसे उसकी विधि करते जाना, चित्तमें उत्साह रखकर नहीं करना, ये दो अतीचार जुदे हैं । इनके साथ अनवेक्षित-अप्रमार्जित विशेषण नहीं लगाया जाता । इन पांचों अतीचारोंको नहीं लगनेसे जीवरक्षा हो सकती है विना इनके बचाये जीवरक्षा कठिन एवं असंभव है, कारण छोटे छोटे जंतुओंका संचार प्रायः सर्वत्र-रहता ही है । उसके बचाने के लिये प्रतिसमय देखभालकी आवश्यकता है, व्रतविधानके समय तो विशेषतासे आवश्यकता है । बिना देखभाल किये धराउठायी करनेसे व्रतकी पूर्ण रक्षा नहीं हो सकती ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460