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पुरुषार्थसिद्धय पाय
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दुःप्रणिधानमें आ जाता है, फिर भिन्न अतीचार इसे क्यों माना गया ?' इसके उत्तर में यह समझ लेना चाहिये कि-मनका दुःप्रणिधान तो उसे कहते हैं कि सामायिक करते करते मनको इधर उधर चले जानेपर उसे वशमें नहीं करना, परंतु भलना सामायिकका स्मरण नहीं रखनेका नाम है । सामायिकका जो काल है उसको अन्यान्य कार्यों की व्यग्रतासे याद नहीं रहना इसीका नाम भूलना है, यह उससे भिन्न है। दूसरी शंका यह भी हो सकती है कि भूल जाना तो कोई दोष नहीं है भूलनेमें किसी को कुछ बाधा पहुंचानेका भी भाव नहीं है फिर इसे अतीचारमें क्यों लिया गया है ?' इसका उत्तर यह है कि-यद्यपि बाधा पहुंचानेका भाव नहीं है तथापि आत्मकल्याणकी वंचना तो हो जाती है, अर्थात् भूल जाने से आत्मकल्याणका मार्ग रुक जाता है अथवा उससे दूसरे प्रकारकी कार्यनियोजनासे हानि हो जाती है, यही आत्मबाधा है; इसलिए किसी व्रतका विस्मरण हो जाना अतींचार है । ये पांच अतीचार हैं । इनके रहते हुए सामायिकमें चित्त नहीं लग सकता एवं ध्येयकी पूर्णसिद्धि नहीं हो सकती, इसलिये इन अतीचारों को नहीं लगाना चाहिये ।
प्रोषधोपवासके अतीचार अनवेक्षिताप्रमार्जितमादानं संस्तरस्तथोत्सर्गः । स्मत्यनुपस्थानमनादरश्च पंचोपवासस्य ॥१२॥ अन्वयार्थ- ( अनवेक्षिताप्रमार्जितं ) बिना देखे बिना झाड़े ( आदानं ) किसी वस्तुका ग्रहण करना ( संस्तरः ) विस्तर विछा देना ( तथा उत्सर्गः ) तथा किसी वस्तुका छोड़ देना (स्मृत्पनुपस्थानं ) प्रोषधोपवासको भूल जाना ( अनादरश्च ) और उसमें आदर नहीं रखना ( पंच उपवासस्य ) ये पांच अतीचार प्रोषधोपवासवतके ।
विशेषार्थ-जिसदिन प्रोषधोपवास किया जाता है उसदिन जलादि आहार मात्रका त्याग होनेसे शरीरमें कुछ शिथिलताका आना स्वाभाविक बात है; ऐसी अवस्थामें पूजनसामग्री, पूजनके अन्यान्य उपकरण, शास्त्रजी चौकी
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