Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 390
________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [ ३७१ सल्लेखनासहित १३ व्रत कहने चाहिये ? इस शंकाका परिहार इसप्रकार हैसल्लेखना न तो किसी व्रतमें गर्भित है और न स्वतंत्र व्रत है किंतु जिसप्रकार १२ व्रतोंसे भिन्न सम्यक्त्वभाव है उसके पृथक् अतीचार हैं, उसी. प्रकार मरणकालमें होने वाला उत्तम क्षमता एवं निर्ममत्वभाव सल्लेखना है । इसेबूतमें शामिल नहीं किया जा सकता, कारण जिसप्रकार सामायिकमें पृथक पृथक् अहिंसादि वनोंका उल्लेख नहीं होता किंतु समष्टि (समुदायरूपसे) रूपसे सभी व्रत सुतरां पल जाते हैं उसीप्रकार सल्लेखनामें भी समस्त व्रत सुतरां पल जाते हैं वहां पृथक पृथक व्रतोंका विधान नहीं होता इस लिए सललेखना वतोंसे भिन्न एक विशुद्धिजन्य विशेष आत्मीय परिणाम है। जब वह किसी विशेष व्रतमें गर्भित नहीं है तब उसके अतीचार भी स्वतंत्र कहना ही आवश्यक है। अतीचारत्यागरूप का फल इत्येतांनतिचारानपरानपि संप्रतयं परिवर्त्य । सम्यक्त्वव्रतशीलैरमलः पुरुषार्थसिद्धिमेत्यचिरात् ॥१६६॥ अन्वयार्थ - ( इति एतान् अतिचारान् ) इसप्रकार इन अतीचागेको ( अपि अपरान् ) और दूसरे जो हैं उन्हें भी ( संप्रत4) मले प्रकार विचारकर ( परिवळ ) उन्हें छोड़कर (अमलैः सम्यक्त्ववतशीलेः) निर्मल सम्यग्दर्शन पांच व्रत और सप्त शीलों के द्वारा (अचिरात् । शीघ्र ही (पुरुपार्थसिद्धि) पुरुषार्थसिद्धिको ( एति ) प्राप्त होता है। _ विशेषार्थ-अतीचारोंका परित्याग किए बिना सम्यग्दर्शन और वतका निर्दोष नहीं हो सकते, तथा बिना उनके सर्वथा निर्दोष हुए पुरुष-आत्माको अर्थ-प्रयोजन सिद्धि-मुक्ति मिल नहीं सकती इसलिए मुक्ति प्राप्तिकेलिये सम्स्यत्व एवं व्रतोंका निर्दोष पालना परमावश्यक है । इसके लिये उनके समस्त अतीचार जोकुछ इस ग्रंथमें गिनाये गए हैं उन्हें और जोकुछ अन्यान्य शास्त्रों में वर्णित किए गए हैं, अथवा उपलक्षणसे जाने जाते हैं उन्हें भी ध्यानपूर्वक विचारकर छोड़ देना चाहिये । उन सब अतीचारोंके छोड़नेपर. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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