Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 366
________________ [ ३४७ पुरुषार्थसिद्धय ुपाय ] " यहां पर यह शंका को जा सकती है कि 'जब ऊर्ध्वव्यतिक्रम अधोव्यतिक्रम और तिर्यग्व्यतिक्रम इन सबमें क्षेत्र ही बढ़ता है फिर क्षेत्रवृद्धि नामका अती चार एकअलग क्यों रक्खागया है ?' इसके उत्तर में यह समझ लेना चाहिये कि जिनागम सभी सापेक्ष है, यदि अपेक्षाको नहीं लगाया जाय तो पूर्वापर विरोध आता है और उसे लगानेपुर कोई कहीं विरोध नहीं आता है । यहांपर जो ऊर्ध्व अधस्तिर्यक् व्यतिक्रम लिया गया है वह क्षणिक है, कदाचित् कभी अवसर आनेपर ऊपर नीचे गमन हो सकता है पर ंतु क्षेत्रवृद्धि में तो कुछ अधिक क्षेत्र प्रयोजनवश स्थायीरूपसे काम में ले लिया जाता है इसलिये उसे जुदा कहा गया है । फिर यहां पर दूसरी यह शंका हो सकती है कि 'ऐसी स्थायी अवस्थामें जो क्षेत्रवृद्धि कर ली जाती है तो उसे क्षेत्रवृद्धि अतीचार क्यों कहा जाता है वह तो अनाचार होना चाहिये !" इसका उत्तर यह है कि – अनाचार मर्यादाका सर्वथा भंग करनेसे होता है, परंतु क्षेत्रबृद्धि करनेवाला मर्यादाका पूरा ध्यान रखता हुआ किसी निमित्तवश थोड़े से प्रसाद या मोहवश कुछ क्षेत्रको बढा लेता है, परंतु वहां पर भी वह मर्यादित क्षेत्रकी कुछ कुछ अपेक्षा रखता है । जैसे कोई पुरुष एकसौ मीलतक अवधि रखकर एकसौ पांच मीलतक चला आवे तो वह क्षेत्र उसका बढ़ा हुआ समझा जायगा, परंतु वह स्वार्थवश एवं प्रमादवश यह अभिप्राय रख लेता है कि एकसौ पांच मील भी करीब करीब सौ ही हैं । अथवा अन्यान्य अपेक्षाएं लगाकर मर्यादाकी रक्षाका ध्यान रखता ही है । अनाचारमें ये सब विकल्प कुछ नहीं होते वहां तो मर्यादाका विचार ही छूट जाता है । अथवा एकबार सम्पूर्णरीति से वृत भंग कर दिया जाता है । ली हुई मर्यादाको भूलजाना, यह स्मृत्यंतराधान अतीचार है। मर्यादाको भूलजानेका अर्थ यह नहीं है कि उसका विस्मरण हो जाता है, किंतु यह अर्थ है कि जितनी मर्यादा ली जाय उसमें भूलकर कुछ अधिक भूमि उपयोगमें आ जाती है । जैसे यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www www.jainelibrary.org

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