Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
३४६ ]
[ पुरुषार्थसिद्ध पाय
उससे अधिक हिंसा होती हैं । इसलिये जहांतक हो व्रतकी पूर्णता के लिये इन सब अतीचारोंको छोड़ना चाहिये ।
दिन 3 तोचार
ऊर्ध्वमधस्तात्तिर्यग्व्यतिक्रमाः क्षेत्रवृद्धिराधानं । स्मृत्यंतरस्य गदिताः पंचेति प्रथमशीलस्य ॥ १८८ ॥
A
अन्ययाथ -- ( उर्ध्व अधस्तात् तिर्यक व्यातिकना ) ऊपर नीचे और तिरछी दिशाओंका उल्लंघन करना. ( क्षेत्रवृद्धिः ) क्षेत्रको चढ़ा लेना, ( स्मृत्यतरस्य आधान ) की हुई मर्यादाको भूलकर कुछ अधिक मर्यादा बड़ा लना, ( इति प्रथमशीलस्य पंच गदिताः ) इसप्रकार पहले शील के अर्थात् दिखतके पांच अतीचार कहे गये हैं ।
-
विशेषार्थ - पर्वतपर बहुत ऊंचे- जितनी मर्यादा उर्ध्व दिशाकी रक्खीधी उतने नियमित क्षेत्र से उपर - चढ़ जाना ऊर्ध्वव्यतिक्रम है, वायुयान ( उड़ने जहाज ) एवं विद्याधरों के विमान या देवोंके विमानों में बैठकर ऊंचे चले जाने में भी ऊपरके मर्यादित क्षेत्रका उल्लंघन हो जाता है । इसी प्रकार कूपमें कोयलों आदि की जमीन के भीतर खानों में प्रवेश करने आदि से नीचेकी मर्मादा का उल्लंघन करना अधोव्यतिक्रम है । समान भूतल में जितने योजन क्षेत्र रक्खा है या जिस नगर या नदी पर्वत तक रक्खा है उनसे कुछ आगे बढ़ जाना तिर्यक्व्यतिक्रम कहा जाता है । कतिपय टीकाकारों ने तिर्यकव्यतिक्रमका अर्थ तिरछागमन तो किया है परंतु दृष्टांत में विलप्रवेश आदि टेढ़ा गमन करना लिया है । यह अर्थ भी किसी प्रकार विरुद्ध नहीं हैं । वह भी होता है और तिरछा गमनसे सम भूतलमें गमन करना लेना भी विरुद्व नहीं पड़ता है । जहां देवोंके अवधिज्ञानका विचार किया है वहां तिर्यक्क्षेत्र समतल ही लिया गया है । दूसरे विलादि प्रवेश नीचेमें आ सकते हैं परंतु विदिशाओंके ग्रहण में वे स्वतंत्र ही सम्हाले जाते हैं । क्षेत्रको बढ़ा लेना - अर्थात् जितना क्षेत्र मर्यादित है उससे कुछ अधिक प्रयोगनवश कार्य में लेलेना, यह क्षेत्रवृद्धि कहलाती है ।
I
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International