________________
परषार्थसिद्धय पाय]
। ३११
अर्थात् जहांवर एक जीवका मरण होता है, वहां अनन्त जीवोंका मरण हो जाता है और जहां एक जीव उत्पन्न होता है वहां अनन्त जीव उत्पन्न हो जाते हैं । इसीलियेसाहारणमाहारो साहारणमाणगहणं च ।
साहारणं सरीरं साहारणलखणं भणियं ॥ अर्थात् जिनका एक ही तो आहार हो, एकसाथ ही श्वासोच्छ्वास होता हो, एक ही सबोंका शरीर हो, वे सब साधारण वनस्पतिकायके जीव कहलाते हैं। एक साधारण वनस्पतिके (निगोदियाके ) शरीरमें अनंतानंत जीवराशिका प्रमाण बतलाते हैं किएकणिगोदसरीरे जीवा दव्बप्पमाणदो सिद्धा ।
सिद्धण अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण ॥ एक निगोदियाके शरीरमें जितनी जीवद्रव्य राशि है वह आजतक अनादि संसारसे अनंतानंत सिद्ध ( मुक्त ) हुये हैं उन सबोंसे अनंतगुणी है अथवा आजतक जितना काल बीत चुका है उसके जितने समय हैं उनके बराबर है।
प्रत्येक उसे कहते हैं कि जिस एक शरीरका एक जीव मूल स्वामी हो । उसके दो भेद हैं-एक सप्रतिष्ठित प्रत्येक दूसरा अप्रतिष्ठित प्रत्येक । सप्रतिष्ठितप्रत्येक उसे कहते है कि जिस शरीरका एक स्वामी हो परन्तु उसके आश्रित अनंत निगोद रहते हों। उन अनंत जीवोंके जीने मरनेसे उस शरीरके पूधानस्वामीसे-जिसका वह शरीर कहलाता है, कोई संबंध नहीं है । तथा जिस शरीरका एक मूल स्वामी हो बाकी उसके आश्रित अनंत निगोदराशि नहीं रहती हो वह अपतिष्ठितप्रत्येक कहलाता है। यह अवस्था वनस्पतिकी तब होती है जब कि वह परिपक्व दशामें परिणत होने लगती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org