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[ पुरुषार्थसिद्धय प.य
mm करे और मनको शुद्ध रक्खे, वचनको शुद्ध रक्खे, शरीरको शुद्ध रक्खे, अर्थात् मनमें किसीप्रकार मायाचार अथवा अविनयका भाव नहीं रक्खे, वचनमें किसीप्रकारकी कठोरता एवं असत्यता नहीं रक्खे, शरीरमें किसी प्रकारकी वाह्य मलिनता नहीं रक्खे, तथा भोजन शुद्ध तैयार करावे, अर्थात् भोजनमेंकोई पदार्थ अभक्ष्य एवं विकारयुक्त न हो । इसीका नाम आहारदान देनेकी विधि है, दूसरा इसीका नाम नवधाभक्ति है, अर्थात् नौप्रकार भक्ति विधिपूर्वक संपादित करे । बिना नवधाभक्तिके उत्तम पात्रका आहार अशक्य है । इसलिये विधिपूर्वक ही आहारदान करना श्रावकका मुख्य कर्तव्य है।
दाता के सातगुण ऐहिकफलानपेक्षा शांतिनिष्कपटतानसूयत्वं । अविषादित्वमुदित्वे निरहंकारित्वमिति हि दातृगुणाः ॥१६॥ ___ अन्वयार्थ- [ ऐहिकफलानपेक्षा ] इस लोकसम्बन्धी एवं परलोकसम्बन्धी फलकी अपेक्षा नहीं करना [क्षांतिः ] क्षमाभाव धारण करना [ निष्कपटता ] मायावार नहीं रखना [अनसूयत्वं ] ईर्ष्याभाव नहीं रखना [ अविषादित्वमुदित्वे ] किसी भी कारणसे विषाद-खेद नहीं करना और हो जानेपर इस बातका हर्ष मनाना कि मुझे आज बहुत फायदा हो गया । [निरहंकारित्वं ] अहंकार-मान नहीं करना [इति ] इसप्रकार [हि ] निश्चयसे [ दातगुणाः ] दातामें गुण होना आवश्यक हैं। _ विशेषार्थ-दान देनेवाले दातामें ये सात गुण अवश्य होने चाहिये इन गुणोंके होनेसे दाता विशेषाधिक पुण्यका लाभ करता है, बिना इन गुणोंके दाता निकृष्ट परिणामवाला समझा जाता है । वे सात गुण इसप्रकार हैं
मुझे लोकमें प्रतिष्ठा मिले, मेरा यश फैल जाय, किसीप्रकारका मेरा कार्य सिद्ध हो जाय, मेरा अहसान हो, इत्यादि इस पर्यायसंबंधी फलकी चाहना न करना चाहिये और परलोकमें मुझे देवोंके सुख मिले, भोगभूमिमें मैं उत्पन्न हो जाऊं इत्यादि परलोकसंबंधी बांच्छा नहीं
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