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[रुषार्थ सिद्धय पाय
अर्थात् आत्मामें परभवकी आयुका बंध होने की योग्यता, आठ अपकर्ष कालों में होती है वे काल आयुके त्रिभागों में ही पड़ते हैं । इसलिये वर्तमान आयुके प्रत्येक त्रिभाग में भी परभवकी आयुका बंध हो सका है अथवा कुछ त्रिभागों में हो जाय या किसी त्रिभागमें नहीं होकर केवल मरणकाल में ही हो जाय, परंतु इतना तो नियम है कि यदि किसी त्रिभागमें आय का बंध नहीं होगा तो मरणकालके पूर्व - अचलावलि समय पहले परभवकी आयुका बंध नियमसे हो जायगा और आयुबंध समय जैसे जीवके भले या बुरे परिणाम होते हैं उन्हींके अनुसार आयुबंध और गतिबंध होते हैं, अशुभ परिणामोंके होनेसे दुर्गति एवं शुभ परिणामों के होनेसे सुगति होती है यह भी नियम है कि गतिबंध तो छूट भी जाता है परंतु आयुबंध कभी छूटता नहीं है, जिस आयुका बंध किया जाता है उस पर्याय में जीवको नियमसे जाना ही होगा, इसलिये आयु तो नियमसे एक ही बंधती है परंतु गतिबंधका कोई नियम नहीं है, चारों गतियोंका भी बंध हो सकता है, दो या तीनका भी हो सकता है । परंतु जो आयुबंधकी अविनाभाविनी गति है वह तो आयुके साथ परभवमें उदय आती है वाकी गतियों का बंध बिना फल दिये निर्जरित हो जाता है । जैसे यदि देवायुका किसी मनुष्यके बंध हो चुका है तो देवगति उदयमें आवेगी बाकी मनुष्य तिर्यञ्च नरक गतियां यदि उसके बंध हो चुकी हों तो वे बिना कुछ फल दिये वैसे ही खिर जायेंगी । इसलिये आयुबंध छूटता नहीं है यह नियम है । जब यह नियम है तभी आचार्यों का यह सदुपदेश है कि प्रतिसमय परिणामों को सम्हालकर रक्खो, नहीं मालूम किस समय आयुका त्रिभाग पड़ जाय जिसमें कि परभवकी आयुका बंध हो जायेगा । यदि हर समय परिणामोंको रागद्व ेषरहित नहीं बना सको तो मरणकालमें तो अवश्य ही बनाओ, कारण उस समय तो आयुबंधकी पूर्ण संभावना है । यदि उस समय
भी परिणामोंको कषाय एवं
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