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[ पुरुषार्थसिद्धयु पाय
___इसप्रकार जीवराशिका स्वरूप समझ करके भोग उपभोग परिमाण वाले पुरुषको अनन्तजीवोंकी रक्षाके लिये ऐसी वनस्पति नहीं खानी चाहिये जिसमें अनन्त जीवोंका ध्वंस होता हो। जिन पदार्थों के सेवन करने से थोड़ा तो जीभका स्वाद होता हो अनंत जीवराशिका नाश होता हो ऐसे पदार्थ कदापि सेवन नहीं करने चाहिये । उनका त्याग कर देना हो उचित है।
मक्खन (लोनी ) का त्याग नवनीतं च त्याज्यं योनिस्थानं प्रभूतजीवानां । यद्वापि पिंडशुद्धौ विम्मभिधीयते किञ्चित् ॥१६३॥
अन्यवार्थ- ( प्रभूतजीवानां योनिस्थानं ) अनेक जीवोंकी उत्पत्ति होनेका योनिस्थान ऐसा ( नवनीतं च त्याज्यं ) लौनी-मक्खन भी छोड़ देना चाहिये । ( यद्वा पिंडशुद्धौ अपि ) अथवा कुछ काल तक पिंडशुद्धि रहने पर भी अर्थात् उस पदार्थ में जीवराशि नहीं उत्पन्न होने पर भी ( किचित् विरुद्ध अभिधीयते ) कुछ विरुद्धता प्रगट की जाती है तो भी वह त्याज्य है।
विशेषार्थ- जो दही विलोनेपर लौनी निकलती है, उसीका नाम मक्खन है । वह मक्खन अभक्ष्य कहा गया है, कारण दो मुहूर्तके पश्चात् तो उसमें अनेक संमूर्छन जीवराशि पड़ जाती है इसलिये दो मुहूर्त-चार घड़ीके पीछे तो वह अनेक जीवाराशिका पिण्ड हो जानेसे भक्ष्य ही नहीं रहता है, परंतु जब तक वह शुद्ध भी है अर्थात् दो मुहूर्तके भीतर भी वह भक्षण करने योग्य नहीं है, कारण उसकी आकृति अच्छी नहीं है, उसे देखनेसे अन्य घृणितपदार्थकी स्मृति हो जाती है इसलिये निर्जीव अवस्थामें वह भी अभक्ष्य है। अनेक ऐसे पदार्थ हैं कि जिनमें दोष भी नहीं है अर्थात् जिनमें जीवराशि नहीं भी है तो भी जो आकृतिसे खराब हैं जिन्हें देखने से परिणामोंमें कुछ विकारभाव होता है वैसे पदार्थ भी अभक्ष्य त्याज्य हैं । मक्खनमें दो मुहूर्त पीछे अनेक जीवराशि पड़जाती है इसके लिये सागारधर्मामृत में यह प्रमाण है
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