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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
पठनपाठनरूप उपकारवृत्ति के सिवा अन्य आजीविका करनेका समय ही नहीं है, दिनभर पढ़ाना ही मुख्य है ऐसी अवस्था में निर्वाहार्थ द्रव्य ग्रहण करना दूषितकोटि नहीं है । जिसप्रकार कि छात्रवृत्ति पाकर विद्या पढ़नेवाला छात्र पढ़ना ही मुख्य लक्ष्य रखकर निर्वाहार्थ द्रव्य लेकर भी विद्याव्यवसायी नहीं कहा जाता उसी प्रकार पढ़ाना ही मुख्य लक्ष्य रखनेवाला पाठक भी विद्याव्यवसायी नहीं कहा जा सकता । हां ! यदि कोई दूसरा आजीविकाका मार्ग हो तो फिर जिन्हें घंटा दो घंटा छात्रोंको पढ़ाकर इनका उपकार करना है उन्हें तो बिना कुछ लिये केवल उपकारदृष्टिसे ही पढाना योग्य है, और वही प्रशंसनीय मार्ग है ।
जो लोग मंत्र तंत्र यंत्रोंद्वारा व्यवसाय करते फिरते हैं वे भी विद्याव्यवसायी हैं ।
वाणिज्य व्यवसाय वहां कहा जाता है जहांपर कि वस्तुओंका खरीदना और बेचना होता है अर्थात् स्वल्पमूल्यमें कोई वस्तु खरीदी जाय अधिक मूल्य में बेचदी जाय अथवा बाजारभाव गिरनेपर अधिक मूल्य में खरीदी हुई वस्तु भी स्वल्पमूल्यमें बेचकर उसके बदले में दूसरी वस्तु खरीदकर लाभ उठाया जाय इसप्रकार का क्रयविक्रय-खरीदना बेचना जो करते हैं वे वाणिज्य व्यवसायी हैं, उन्हींको वणिकवृत्ति करनेवाले - वैश्य कहते हैं । वैश्योंका प्रधान कार्य इसीप्रकार लेन देन रूप व्यापार करने का है । इस वाणिज्यके भी उत्तम मध्यम जघन्य एवं अधम आदि भेद हैं । जो स्याहीके द्वारा आजीविका की जाती है वह मषीवृत्ति है-जैसे मुनीमी करना, दफ्तरोंमें क्लर्की करना आदि । कृषि नाम खेतीका हैं जहां पर खेती के द्वारा आजीविका की जाती है वह कृषिवृत्ति है । सेवा करना- किसीका वेतन लेकर टहल चाकरी करना सेवावृत्ति कही जाती है । मुनि, ऐलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी, अविरतसम्यग्दृष्टि आदि धार्मिक पुरुषों की धर्मभक्ति वश बिना कुछ निजी प्रयोजन रखते हुए जो सेवा की जाती
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