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है, यदि जुआ द्रव्य अधिक कमा लेता है तो दुःसंगतिके प्रभाव और अन्यायी बुद्धि हो जाने के कारण वह वेश्या आदिके यहां जाता है, वहां शराब आदि अभक्ष्यवस्तुको भी पीताखाता है । इत्यादि जितने भी संसार में अनर्थ हैं जुआरीसे कुछ भी नहीं बचते, इसलिये जुयेको सब अनर्थों का सरदार बताया गया है। जुआ खेलना महा असंतोष पैदा करना है, इस कार्य से इतनी लोभवृत्ति हो जाती है कि वह उसे किसी हालत में छोड़ नहीं सकता, चाहे हार हो, चाहे जीत हो, उसमें तृष्णावश फंसा ही रहता है इसलिये एसे संतोषभाव तो आत्मासे सर्वथा विदा हो जाता है । वैसी अवस्थामें आत्मा मलिनताका घर बन जाता है । संसारमें मायाचार बहुत बुरा है परन्तु जुआ खेलनेवाला पक्का मायाचारी होता है, उसके बिना उसका काम ही नहीं चलता, इसप्रकार समस्त पापकर्मों का मूलभूत जो जुआ है इसे दूरसे ही छोड़ना चाहिये, जुएवालोंके कभी पास भी नहीं जाना चाहिये, इस जुएको सर्वथा छोड़ना-यत-अनर्थदण्डत्याग व्रत है ।
अनर्थदण्डत्यागी अहिंसाव्रती है
एवंविधमपरमपि ज्ञात्वा सुञ्चत्यनर्थदंडं यः । तस्यानिशमनवद्यं विजयमहिंसाव्रतं लभते ॥ १४७॥
अन्वयार्थ – [ यः ] जो पुरुष [ एवं विधं ] इसप्रकार [ अपरमपि ] दूसरे भी [ अनर्थदंडं ज्ञात्वा ) अनर्थदंडोंको जानकर उन्हें [ मुंचति ] छोड़ देता है [ तस्य ] उस पुरुषका [ अहिंसावत ] अहिंसावत [ अनिशं ] निरन्तर [ अनवद्य ] निर्दोष [ विजयं ] विजयको [ लभते ] प्राप्त होता है ।
विशेषार्थ - जो पुरुष ऊपर कहे हुए अनर्थदंडों को छोड़ देता है तथा दूसरे और भी जो अनर्थदण्ड समझे जाते हैं उन्हें समझकर छोड़ देता है उसीका अहिंसावत निरंतर निर्दोष पलता है । जो अनर्थदण्डका त्यागी नहीं है उस पुरुषसे कभी भी अहिंसाबूत नहीं पल सकता ।
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