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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
- विशेषार्थ-जब प्रोषधोपवास करनेवाला पुरुष भोगोपभोगका त्याग करनेसे स्थावर हिंसासे बच जाता है, त्रसहिंसाका वह त्यागी होता ही है, वचन गुप्ति आदि पालनेसे अन्य चार पापोंका त्यागी भी है इसप्रकार समस्त प्रकारकी हिंसाका त्यागी होनेसे वह महावती तुल्य है अर्थात् वास्तवमें तो महाव्रती नहीं कहा जा सकता किंतु उपचारसे वह महाव्रती कहा जाता है। मुख्यतासे महाव्रती क्यों नहीं कहा जाता इसका उत्तर यह है कि उसके प्रत्याख्यानावरणी कषायका उदय हो रहा है वह सकलसंयममहावतका घातक है इसलिए वह मुख्यतासे सकलसंयमी नहीं कहा जा सकता परन्तु प्रसस्थवार हिंसाका त्यागी होनेसे उपचरित महावूनी कहा जाता है।
भोगोपभोगपरिमाणवत
भोगोपभोगमूला विरताविरतस्य नान्यतो हिंसा । अधिगम्य वस्तुतत्त्वं स्वशक्तिमपि तावपित्याज्यौ।।१६१॥
अन्वयार्थ-[विरताविरतस्य ] कुछ अंशों में विरत कुछ अंशोंमें अविरत अर्थात् देशवतोपंचमगुणस्थानवी पुरुषके भोगोपभोगामूला] भोग और उपभोगोंके कारणसे होनेवाली [हिंसा 'भवांत' | हिंसा होती है। [ अन्यतः न ] और किसी निमित्तसे नहीं होती । वस्तुतत्वं अधिगम्य ] वस्तुस्वरूपको जान करके [ स्वशक्ति अपि ] अपनी शक्ति के अनुसार तो अपि ] वे दोनों भोगउपभोग भी [ त्याज्यौ) छोड़ देने चाहिये। _ विशेषार्थ-देशव्रतीके त्रसहिंसाका त्याग होता ही है क्योंकि परिग्रह, परिमाणवतमें वह परिग्रहका परिमाण कर लेता है इसलिये उससे होनेवाली हिंसा फिर नहीं होती, परन्तु भोग उपभोगकी जो सामग्री रक्खी है उससे तो हिंसा उसके होती है इसलिये उसे भी हिंसाका मूलकारण समझकर यथाशक्ति छोड़ देना चाहिये क्योंकि परिग्रहपरिमाणवतवाले देशवतीके हिंसाके कारण भोग उपभोगमें आनेवाले पदार्थ ही वाकी रहते हैं और कारणोंको तो वह पहलेसे ही छोड़ देता है इसलिये जो
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