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[ पुरुषार्थसिद्धपाय
वे सब विद्याव्यवसायी हैं, इसप्रकारका विद्याव्यवसाय कभी प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता । शंका की जा सकती है कि जो आजकल पाठशालाओं में अध्यापक छात्रोंको पढ़ाते हैं वे सब क्या विद्याव्यवसायी हैं ? उत्तरवे द्रव्य ठहराकर उसीको आजीविकाका साधन समझकर पढ़ाते हैं इस दृष्टिसे कोई उन्हें भले ही उस कोटिंमें सम्हाल कर लेवे परन्तु वास्तवमें जो उपकारबुद्धिसे छात्रोंको उनके कल्याण के लिये एवं समाज एवं धर्मकी रक्षाकी दृष्टिसे धर्मपूर्णज्ञानका उपदेश देते हैं, उसीका अध्ययन कराते हैं, उस कार्य से अवकाश न पाकर निर्वाहार्थ द्रव्यका ग्रहण करते हैं इसलिये वे अध्यापक विद्याव्यवसायी नहीं हैं, यदि उन्हें विद्याव्यवसायी समझ लिया जाय तो फिर गुरुशिष्यसंबंध उनका नहीं रह सकता है, कारण विद्याको यदि बेचना ही लक्ष्य हो तो वहां देनेवाला भी अपने लिए गुरुत्वबुद्धिका अनुभव नहीं कर सकता और लेनेवाला छात्र भी उस देनेवालेकी शिष्यता स्वीकार नहीं कर सकता, परंतु ऐसा देखा नहीं जाता है, बड़े बड़े राजपुत्र भी गुरुओंके निर्वाहार्थ उन्हें द्रव्य देकर भी उनके चरणों में शिर धरते हैं, उनकी आज्ञाको शिरोधार्य करते हैं तथा मनमें भी उनका परम उपकार समझते हुए उनकी शिष्यता स्वीकार करते हैं, इसलिए कहना चाहिये कि आजकल पाठशाला आदिका अध्यापन भी निरपेक्ष दृष्टि से धर्मलाभार्थ छात्रोंको पढ़ा देना और उनकी दी हुई भेंटको सन्तोषपूर्वक ग्रहण कर लेना उसी प्राच्यमार्गका कुछ परिवर्तित रूप है, देनेवाले तथा लेनेवाले दोनों के परिणामों में पूर्ण सन्तोषकी मात्रा न रहने से केवल सुविधा रखने के लिए द्रव्य निर्वाहार्थ मिलते हुए भी उसे ठहरा लिया जाता है । वास्तव में तो दिनभर पाठक छात्रोंको पढ़ाता है, इसलिये अन्य किसी व्यापारद्वारा द्रव्य कमानेका उसे अवकाश ही नहीं मिल पाता, ऐसी अवस्था में पढ़नेवाले उसकी गृहकार्य चलानेकी चिंताको नियतरूपसे कुछ द्रव्य देकर दूर करते रहते हैं, वैसी अवस्थामें उनका पठन पाठन सदा निर्विघ्न रूप से चला जाता है ।
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