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[ पुरुषार्थसिद्धयु पाय
करता है क्योंकि मर्यादित क्षेत्रके बाहर कषाय उत्पन्न होनेका भी निमित्त नहीं रहता । इसलिये प्रत्येक गृहस्थ को इसप्रकारके व्रत धारण करके रात दिनके हिंसाजनित पापोंसे बचना चाहिये।
अपध्यान--अनर्थदण्ड व्रतका स्वरूप पापद्धिजयपराजयसंगरपरदारगमनचौर्याद्याः ।
न कदाचनापि चिन्त्याः पापफलं केवलं यस्मात्॥१४१॥ अन्वयार्थ-[ पापजियपराजयसंगरपरदारगमनचौर्याद्याः ] पापोंकी ऋद्धिस्वरूप अर्थात् अधिक पाप फलको देनेवाले अपना जय दूसरोंका पराजय संग्राम परदारगमन और चोरी आदि ये सभी [ कदाचन अपि ] कमी भी [न चिन्त्याः ] नहीं चितवन करने चाहिये [ यस्मात् ] क्योंकि [ केवलं पापफलं भवति ] इनके चितवन करनेसे केवल पाप ही फल मिलता है। ___ विशेषार्थ-बिना प्रयोजन जो हिंसा तथा कषायवर्धक कार्य किया जाता है उसे अनर्थदण्ड कहते हैं अर्थात् जिस कार्यसे अपना कुछ भी प्रयोजन सिद्ध न होता हो ऐसा राग द्वेष एवं हिंसा करानेवाला कार्य जो किया जाता है वह अनर्थदण्ड कहा जाता है । उस कार्यसे जो पापका संचय होता है वह बिना प्रयोजन जीवके लिये दण्ड है इसप्रकार अनर्थ-बिना प्रयोजन दण्ड मूर्ख ही भोगता है, बुद्धिमान नहीं । वह ऐसे अनर्थदण्ड का त्याग कर देता है । जो ऐसे बिना प्रयोजन राग द्वष एवं हिंसाके करनेवाले कार्यो का त्याग कर देना है वही अनर्थदण्ड व्रत कहलाता है। पापोत्यादक क्रियाओंका त्याग कर देना ही व्रत है । जो बिना प्रयोजन खोटा चितवन किया जाता है वह अपध्यान कहलाता है, अर्थात् अशुभासवको पैदा करनेवाले बुरे चिंतवनको अपध्यान कहते हैं । यह अनर्थदण्ड इसलिये है कि दूसरेका भला बुरा तो उसके शुभ अशुभ कर्मोदयके अधीन है, किसीके चितवनसे कुछ आता जाता नहीं। जैसे किसीकी जय और किसीकी पराजय-हारकी चिंता करना, दृष्टांतके लिए दो पहलवानोंको ले लेना चाहिए, उन्हें लड़ते हुये देखकर अपना उनसे कोई सम्बन्ध न होने
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