________________
[ (रुषार्थ सद्धय पाय
श्रोआचार्यमहाराज इसी दृष्टांतका स्पष्टीकरण करते हैं माधुर्यप्रीतिः किल दुग्धे मंदैव मंदमाधुर्ये ।
सैवोत्कटमाधुर्ये खंडे व्यपदिश्यते तीचा ॥१२३।। अन्वयार्थ-(किल ) निश्चय करके ( माधुर्यप्रीतिः ) मधुरतामें प्रीति ( मंदमाधुर्य दुग्धे ) मंद मधुरता रखनेवाले दूध में ( मंदा एव ) मंद ही है । ( सा एव ) वही मधुरतामें प्रीति ( उत्कटमाधुर्य खंडे ) अधिक मधुरता रखनेवाली खांडमें ( तीव्रा व्यपदिश्यते ) तीव्र कही जाती है।
विशेषार्थ-दूधमें कमती मिठास है इसलिये उसके पीनेसे पीनेवालेको कमती मीठापन मालूम होता है और खांडमें अधिक मिठास है इसलिये उसके खानेवालेको अधिक मीठापन मालूम होता है । यह दोनोंके मीठेपनका भेद दोनोंके कारणोंकी भिन्नतासे ही होता है । इसलिये जहां जैसा कारण होता है वहां वैसा कार्य होता है । इसी भेदसे जीवोंके परिणामोंमें मुर्छाधिक्य एवं मूर्खामांद्य होनेसे क्रमसे हिंसाधिक्य होनेसे परिग्रहाधिक्य एवं हिंसामांद्य होनेसे परिग्रहाल्पकत्व होता है । अब यहांपर यह बतलाया जाता है कि चौदहप्रकारके अंतरंगपरिग्रहसे आत्माकी क्या हानि होती है ?
सम्यग्दर्शनके घातक चोर तत्त्वार्थाश्रद्धाने नियुक्तं प्रथममेव मिथ्यात्वं ।
सम्यग्दर्शनचौराः प्रथमकषायाश्च चत्वारः ॥१२४॥ अन्वयार्थ-( तत्वार्थाश्रद्धाने ) तत्वार्थ के अश्रद्धान करनेमें ( मिथ्यात्व ) मिथ्यादर्शन ( प्रथम एव ) पहले ही ( नियुक्त) नियत है ( चत्वारः ) चार ( प्रथमषायाश्च ) प्रथम कषाय भी । सम्यग्दर्शनचौराः ) सम्यग्दर्शनके चुरानेवाले हैं।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनका लक्षण तत्वार्थाश्रद्धान बतलाया गया है उस तत्त्वार्थश्रद्धानको नष्ट करनेवाला कर्म दर्शनमोहनीय है । दर्शनमोहनीय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org