Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 296
________________ पुरुषार्थसिद्धयुपाय ] ...... २७.७. अनुमान सहज हो जाता है कि वैसी घृणित प्रवृत्तिमें तीव्ररागकी प्रेरणा है । विना तीव्ररागके उदय हुये निषिद्ध पदार्थमें समझदार पुरुष प्रवृत्ति करेगा ही क्यों ? तथा जो पदार्थ विशेष हिंसाका उत्पादक है एवं हिंसामय ही जिसका स्वरूप है उसका सेवन महान पापवर्धक है, ऐसे पदार्थों के सेवनका ही दयालु महर्षियोंने निषेध किया है । मांस साक्षात् जीवका कलेवर है और निरंतर अनंत जीवोंकी उत्पत्ति उसमें सदैव होती रहती है, ऐसे महा घृणित जीवपिंडका भक्षण करना महा पापक्र्धक हिंसाका कारण है इसीलिये उसका सबसे प्रथम सर्वथा त्याग बतलाया गया है । जैनशास्त्रकारोंने बिना मांसका त्याग किये जैनधर्म धारणकी ही अशक्यता बतला दी है । इसीलिये अष्ट मूलगुणधारी जैनमात्रके लिये उसका परित्याग आवश्यक है। फिर भी जो सर्वथा निषिद्ध-मांसके सेवन करने में तत्पर हो जाते है उन्हें सिवा तीनरागीके और क्या कहा जा सकता है। निषिद्ध पदार्थों में तीवमोही आत्मा ही प्रवृत्त होता है अन्न सात्विक पदार्थ है, मांस महा विकृत है उसके स्पर्शमात्रसे मनुष्य हिंसाका भाजन बन जाता है । इसलिये जिसप्रकार अन्नके भोजनमें विशेष राग नहीं है किंतु मांस के खानेमें तीव्रराग है इसलिये अन्नभोजीको हिंसा नहीं लगती और मांसभोजीको तीव्र हिंसा लगती है उसीप्रकार दिवाभोजी और रात्रिभोजी दोनोंमें रात्रिभोजीको अधिक रागी होनेसे तीवहिंसा लगती है। कारण कि भोजनका ग्रहण करना अनिवार्य होनेपर भी दिवाभोजी निरीक्षणादि प्रयत्नसे जीवरक्षा करने में पूर्ण समर्थ है प्रकाश अवलोकन आदि उसे साधन मिले हुए हैं परंतु रात्रिभोजी प्रयत्न करनेपर भी जीवरक्षा करने में सर्वथा असमर्थ है । रात्रिमें उसे प्रकाश अवलोकन आदिका मिलना भी कार्यकारी नहीं है। रात्रिके प्रकाशमें जीवसंचारका ही आधिक्य है इसलिये रात्रिभोजी किसीप्रकार हिंसासे मुक्त नहीं हो सकता । तथा जो रात्रिभोजी हैं उनके जीवरक्षाके भाव भी नहीं उत्पन्न होते, यदि वास्तवमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460