Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[ पुरुषार्थसिद्ध पाय
( विज्ञ ेयं ) जानना चाहिये (तद्भदाः अपि ) उस असत्यके भेद भी ( चत्वारः ) चार ( संति ) हैं ।
विशेषार्थ - जो वचन प्रमादपूर्वक अर्थात् सकषायभावोंसे कुछका कुछ कहा जाता है वही झूठके नामसे प्रसिद्ध है । इस श्लोक में दिये गये 'प्रमादयोगात्' पदसे यह बात सिद्ध होती है कि केवल कुछका कुछ कहना झूटमें शामिल नहीं है किंतु सकपायपरिणामोंसे अन्यथा कहना
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ठमें शामिल है । जहां पर परिणामोंमें किसी प्रकारका सकषायभाव अथवा अन्य विकारभाव नहीं है वहां यदि कोई बात अन्यथा भी कही जाय तो झूठ नहीं समझा जाता । परन्तु जहां सदभिप्राय नहीं है वहां यदि अन्यथा बोला जाता है तो वह झूठ है । सिद्धांतकारोंने झूलका लक्षण यह भी कहा है कि जो वाक्य दूसरे जीवोंको पीड़ा देनेवाला हो वह सब झूठ है । इस लक्षणसे जो बात सत्य भी हो और उससे दूसरे जीवोंको कष्ट पहुंचता हो एवं कष्ट पहुंचानेका लक्ष्य रखकर ही प्रयोग करनेवाले ने उसका प्रयोग किया हो तो वह सत्यबात भी झूठ में शामिल है । इसीप्रकारसे जो बात झूठ भी है परन्तु बिना किसी छलके दूसरोंके हितका ध्यान रखकर सदभिप्रायसे कही गयी है तो वह भी सत्य में शामिल है । इसी बात को असत्यवचनके चार भेदोंसे प्रगट किया गया है ।
एक प्रकारका असत्य वचन
स्वक्षेत्रकालभावैः सदपि हि यस्मिन्निषिज्यते वस्तु । तत्प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्र ॥ ६२ ॥
अन्वयार्थ – (स्त्रक्षेत्रकालभावैः ) अपने द्रव्य क्षेत्र काल और भावसे ( सदपि ) विद्यमान भी ( वस्तु ) वस्तु ( यस्मिन् ) जिस वचनमें ( निषिद्धयते ) निषिद्ध की जाती हैं ( तत् ) वह ( प्रथमं ) पहला ( असत्यं ) असत्य है | ( यथा ) जैसे ( अत्र ) यहांपर ( देवदत्त:नास्ति ) देवदत्त नहीं है ।
विशेषार्थ - जगत् में समस्त पदार्थ अपने स्वरूपसे सत्ता रखते हैं, परस्वरूपकी अपेक्षासे कोई पदार्थ अपनी सत्ता नहीं रखता । यह एक मानी
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