Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
यह असत्य वचन है । जो जिसका स्वरूप नहीं है वह परस्वरूपसे इस वचनमें कहा गया है । यह तीसरे प्रकारका कूटका भेद है ।
चौथे प्रकारका असत्य
[ २४१
www
गर्हितमवद्यसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् । सामान्येन त्रेधा मतमिदमनृतं तुरीयं तु ॥६५॥ अन्वयार्थ – [ यत् वचनरूपं ] जो वचनस्वरूप [ गर्हितं ] निंदनीय [ अवद्यसंयुतं ] दोषसहित [ अपि अप्रियं ] और अप्रिय - कठोर [ भवति ] होता है [ इति ] इसप्रकार [ इदं ] यह [ तुरीय] चौथा [ अनृतं ] झूठ सामान्येन ] सामान्य रीतिमे [ त्रेधा ] तीन प्रकार [ मतं ] माना गया हैं ।
३१.
Jain Education International
विशेषार्थ - जो वचन निंदनीय शब्दोंद्वारा बोला जाता है वह भी झूठमें शामिल है । जो वचन दोष सहित वचनोंद्वारा बोला जाता है वह भी झूठ वचन है । जो वचन कठोर शब्दोंद्वारा बोला जाता है वह भी झूठ में शामिल है। कारण निंदनीय दुष्ट और कठोर वचनोंसे दूसरे पुरुषोंकी आत्मामें दुःख होता है और अपनी आत्मामें भी उनसे क्षोभ पैदा होता है; इसलिए जिन वचनोंसे अपनी और दूसरोंकी आत्माओंको कष्ट पहुंचता हो वे वचन सब झूठ में शामिल किए जाते हैं। यहांपर यह शंका की जा सकती है कि अनेक कठोर वचन ऐसे भी बोले जाते हैं जो सत्यरूप हैं,
झूठ में कैसे शामिल किए जा सकते हैं ? उत्तर में यह कहना पर्याप्त है कि चाहे सत्य भी हैं परन्तु उन वचनोंसे अपने और परके आत्मामें पीड़ा तो होती है, पीड़ाका होना ही भावोंका वध है, इसलिए कठोरवचन सत्य होनेपर भी झूठ में शामिल हैं । परन्तु इतनी बात यहांपर ध्यान में रखने की है कि जैन सिद्धांकारोंने सर्वत्र प्रमादसहित वचनों को ही झूठ में सामिल किया है जिन वचनों में प्रमादयोग नहीं है वे झूठ में शामिल नहीं किए जा सकते। जैसे गुरु पढ़ाते समय शिष्य पर पाठ ठीक करने के लिए सद्बुद्धि से कठोर वचन कहता है अथवा कोई मुनिमहाराज किसी अवतीसे पाप छुड़ाने के उद्देश्य से कठोरवचनोंमें पापोंकी समालोचना करते हों तो वह
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org