Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
[द्विविधपरिग्रहवहनं ] दोनों प्रकार के परिग्रहों का ग्रहण करना [हिंसा इति सूचयंति' ] हिंसा है ऐसा सूचित करते हैं। __ विशेषार्थ—परिगृह विना आरंभके नहीं रह सकता, और जहां आरंभ है वहां हिंसा अवश्य होती है, इसके सिवा जहां मोहजनित आत्मीयभाव हैं वहां बिना आरंभके ही भावहिंसा है, इसलिये दोनों प्रकारके परिग्रहका ग्रहण करना ही हिंसा है और उनका छोड़ना ही अहिंसा है, ऐसा श्रीआचार्य महाराज बतलाते हैं।
परिग्रहमें हिंसा हिंसापर्यायत्वातु सिद्धा हिंसांतरंगसंगेषु ।
बहिरंगेषु तु नियतं प्रयातु मूर्छव हिंसात्वं ॥११॥ अन्वयार्थ-[ अंतरंगसंगेषु ] अंतरंगपरिग्रहोंमें [ हिंसापर्यायत्वात् ] हिंसाके पर्याय होनेसे [ हिंसा सिद्धा ] हिंसा सिद्ध है [ बहिरंगेषु तु ] बहिरंग परिग्रहोंमें तो [ नियतं ] नियमसे [ मूर्खा एव हिंसात्वं प्रयातु ] मूछो ही हिंसापनेको सिद्ध करती है । ____ विशेषार्थ-अंतरंग परिग्रह मिथ्यात्व और कषायभाव हैं वे तो स्वयं हिंसास्वरूप हैं ही, कारण हिंसा उसे ही कहते हैं कि जहां प्रमादयोगसे प्राणोंका अपहरण हो । जहां कषायभाव है या मिथ्यात्व है वहां आत्मा के शुद्ध भावोंका नाश एवं प्रमाद परिणाम है इसलिये अंतरंगपरिगृह तो स्वयं हिंसास्वरूप हैं । बहिरंगपरिग्रह स्वयं हिंसारूप नहीं हैं किंतु उनमें ममत्वपरिणाम होता है इसलिये वे हिंसाजनक हैं, यह भावहिंसाका निरूपण है । बहिरंगपरिगहोंसे होनेवाली द्रव्य हिंसाको दृष्टिमें लेनेसे द्रव्यहिंसा भी उनसे नियमित है । इसलिये वास्तवमें हिंसास्वरूप हिंसा का उत्पादक हिंसाका फल हिंसाका कारण परिग्रह ही है । यदि उसका संबंध छोड़ दिया जाय तो फिर न कभी किसी निमित्तिसे ममत्वपरिणाम उत्पन्न हों, न किसी प्रकारका आरंभ हो और न आत्मीयपरिणाम ही विकाररूप धारण करें। श्रीमुनिमहाराज दोनों प्रकारके परिगह त्यागी
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