Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[ पुरुषार्थसिद्धय गाय
अन्वयार्थ-[ मिथ्यात्ववेदरागाः ] मिथ्यात्व पुवेद स्त्रीवेद नपुसकवेद [ तथैव ] उसी प्रकार [ हास्यादयश्च षड् दोषः ] हास्य रति अरति शोक भय जुगप्सा ये छह दोष [ चत्वारश्च कषायाः ] चार कषाय ये [ चतुर्दश अभ्यंतरा ग्रंथाः ] चौदह अभ्यंतर परिग्रह कहलाते हैं।
विशेषार्थ-आत्माके कषायरूप वैभाविक भावको अभ्यंतर परिग्रह कहते हैं, अर्थात 'ममेदंरूप'- यह मेरा है यह तेरा है इस रूप जो आत्माका मोहरूप परिणाम है उसीका नाम अभ्यंतर परिग्रह है, इस परिगहमें सभी कषाय भाव और मिथ्यात्व गर्भित हो जाता है, अर्थात् दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ही अंतरंगपरिगह है उसीके चौदह भेद हैं । मिथ्यात्वमें सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यङ मिथ्यात्वप्रकृति अंतर्गत हो जाती है इसलिये मिथ्यात्व कहनेसे समस्त दर्शनमोहनीय हो चुका । चारित्रमोहनीय २४ भेदोंमें बँटा हुआ है वह संक्षेपसे १३ भेदों में आ जाता है, अंनतानुवंधि, अप्रत्याख्यानावरणी, प्रत्याख्यानावरणी, और संज्वलन (इन्हींके क्रोध मान माया लाभ ये चार चार भेद करनेसे १६ भेद हो जाते हैं ) तथा हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा, छह ये भेद और स्त्रीवेद पुवेद नपुसकवेद तीन ये इसप्रकार १३ प्रकार चारित्रमोहनीय और १ मिथ्यात्व कुल १४ प्रकारका अभ्यंतर परिगह है। जिस पुरुषके वाह्यपरिग्रह कुछ भी न हो, भले ही वह नग्न बनकर जंगलमें रहता हो परन्तु इन १४ मिथ्यात्व और कषायभावोंमेंसे कोई भी जिसके परिग्रह है वह अवश्य परिगृही है, इस दृष्टिसे दशवें गुणस्थानवर्ती मुनिमहाराज भी कथंचित् परिगृही कहे जा सकते हैं । परन्तु उनगुण स्थानोंमं कषायोंका उदयमात्र हैं, वहां कषायोद्रेक बुद्धिपूर्वक नहीं है इसलिये कषायोंकी सत्ता मात्रकी अपेक्षासे परिगृह कहा जाय तो कुछ आपत्ति नही है किंतु कार्यकी अपेक्षा अथवा बुद्धिपूर्वक ममत्वभावकी अपेक्षा वहां परिगृहका सर्वथा अभाव है, मिथ्यात्वरूप परिगृह तो चतुर्थ गुणस्थानवर्तीके भी नहीं है ।
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